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श्री कामदेव जी की सज्झाय
( अध्ययन २ के आधार पर)
श्रावक श्री वीर ना चम्पा ना वासीजी । अन्तरा ।
एक दिन इन्द्र प्रशंसियोजी, भरी सभा के मांय । दृढ़ताई कामदेव नी, कोई असुर सके न चलाय॥ श्रा०॥१॥
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सरध्यो नहीं एक देवता जी, रूप पिशाच बनाय । कामदेव श्रावक कने आयो, पौषधशाला के मांय ॥ २ ॥
हं भो ! रे कामदेवजी ! थाने कल्पे नहीं रे कोय । थारे धरम नहीं छोड़वो पण, हुं छोड़ावसुं तोय ॥ ३ ॥
रूप पिशाच नो देखने जी, डरिया नहीं मन मांय । जाण्यो मिथ्यात्वी देवता, दियो ध्यान में चित्त लगाय ॥ ४ ॥
एकबार मुखसुं कहो, इम देव कहे वारंवार । कामदेव बोल्या नहीं, जद देव आयो छे बहार ॥५ ॥
हाथी रूप वैक्रेय कियोजी, पिशाच पणो कियो दूर। पौषधशाला में आयने, वो बोले वचन कर ॥६॥
मन, करी चलिया नहीं, तब हाथी सुंड में झाल । पौषधशाला में आयने, वो बोले वचन करूर ॥७॥
मन करी चलिया नहीं, तब हाथी सुंड में झाल । पौषधशाला के बाहिरे, दियो आकाश मांहि उछाल ॥ ८ ॥
दंतशूल पर झेलने जी, कमल नी पेरे रोल । उज्वल वेदना उपनी पण, रह्यो ध्यान अडोल ॥ ६ ॥
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