________________
श्रमणोपासकों की आत्मिक सम्पत्ति
"अभिगयजीवाऽजीवा, उवलद्ध पुण्ण-पावा आसव-संवर- णिज्जरकिरिया हिगरण - बंध - मोक्ख- कुसला । असहेज्जदेवाऽसुर - -णाग-सुवण्ण-जक्खरक्खस किण्णर- किंपुरुष - गरुल - गंधव्व-महोरगाईएहिं देवगणेहिं णिग्गंथाओ पावयणाओ अणतिक्कमणिज्जा, णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिया णिक्कंखिया णिव्वितिगिच्छा, लद्धट्ठा, गहियट्ठा, पुच्छियट्ठा, अभिगयट्ठा, विणिच्छियट्ठा, अट्ठिमिंजपेमाणु - रागरत्ता । " अयमाउसो ! णिग्गंथे पावयणे अट्ठे अयं परमट्ठे, सेसे अणट्ठे। उसियफलिहा, अवंगुय दुवारा, चियत्तंतेउरघरप्पवेसा । बहूहिं सीलव्वयगुण वेरमण-पच्चक्खाणपोसहोववासेहिं चाउद्दसमुद्दिट्ठ- पुण्णमासिणीसु परिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणा, समणे णिग्गंथे फासु-एसणिज्जेणं असण- पाणखाइम-साइia-पडिग्गह- कंबल - पायपुंछणेणं पीढ-फलग- - सेज्जा - संथारएणं ओसह-भेसज्जेणं पडिलाभेमाणा अहापडिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरति ।
सूत्रकार ने उपरोक्त शब्दों में उन आदर्श श्रमणोपासक महानुभावों की भव्य आत्म- ऋद्धि का अच्छा परिचय दिया है।
अभिगय जीवाऽजीवा
जानने के साथ अभिगत आत्मा में स्थापित कर लिया था ।
--
Jain Education International
परिशिष्ट
-
-
१७५
उवलद्धपुण्ण-पावा पुण्य और पाप तत्त्व का अर्थ और आशय प्राप्त कर लिया
था। पुण्य और पाप के निमित्त, भाव, क्रिया और परिणाम समझ कर हृदयंगम कर चुके थे।
आसव-संवर- णिज्जर...मोक्खकुसला
आस्रव संवरनिर्जरा- क्रिया-अधिकरण-बंध और मोक्ष के स्वरूप, साधन, आचरण, बंधन और मुक्ति का स्वरूप वे समझे हुए थे । वे आर्हत् सिद्धांत में दक्ष थे, निपुण एवं विशेषज्ञ थे। आत्म-परिणत ज्ञान के वे धारक थे।
वे तत्त्वज्ञ, तत्त्वाभ्यासी, तत्त्वानुभवी, तत्त्वसंवेदक एवं तत्त्वदृष्टा विद्वान् थे ।
उन श्रमणोपासकों ने जीव और अजीव तत्त्व का स्वरूप
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org