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श्री उपासकदशांग सूत्र
अणवकंखमाणे विहरइ। तए णं तस्स महासयगस्स रेवई गाहावइणी मत्ता जाव विकड्डमाणी विकड्माणी जेणेव पोसहसाला जेणेव महासयए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मोहुम्माय जाव एवं घयासी-तहेव जाव दोच्चंपि तच्चपि एवं वयासी
भावार्थ - उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी राजगृह पधारे, परिषद् धर्मोपदेश सुन कर लौट गई। भगवान् ने गौतमस्वामी से फरमाया - “हे गौतम! इस राजगृह नगर में मेरा अंतेवासी महाशतक श्रमणोपासक अपश्चिम-मारणांतिकी संलेखना की आराधना कर रहा है। आहार-पानी की इच्छा न करते हुए तथा मृत्यु की आकांक्षा नहीं रखते हुए पौषधशाला में वह शरीर और कषायों को क्षीण कर रहा है। उसके पास एक दिन रेवती गाथापत्नी आई थी तथा मोह-उन्मादजनक वचन दो-तीन बार कहे थे।
तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए दोच्चंपि तच्चपि एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते ४ ओहिं पउंजइ पउंजित्ता ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता रेवई गाहावइणिं एवं वयासी-जाव ‘उववजिहिसि'। णो खलु कप्पइ गोयमा! समणोवासगस्स अपच्छिम जाव झूसियसरीरस्स भत्तपाणपडियाइक्खियस्स परो संतेहिं तच्चेहिं तहिएहिं सब्भूएहिं अणिटेहिं अकंतेहिं अप्पिएहिं अमणुण्णेहिं अमणामेहिं वागरणेहिं वागरित्तए, तं गच्छ णं देवाणुप्पिया! तुमं महासययं समणोवासयं एवं वयाहि-णो खलु देवाणुप्पिया! कप्पइ समणोवासगस्स अपच्छिम जाव भत्तपाणपडियाइक्खियस्स परो संतेहिं जाव वागरित्तए। तुमे य णं देवाणुप्पिया! रेवई गाहावइणी संतेहिं ४ अणि?हिं ५ वागरणेहिं वागरिया, तं णं तुमं एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव जहारिहं च पायच्छित्तं पडिवजाहि। ____कठिन शब्दार्थ - पउंजइ - प्रयोग किया, संतेहिं - सत्य, तच्चेहिं - तत्त्वरूप-यथार्थ या उपचार रहित, तहिएहिं - तथ्य - अतिशयोक्ति या न्यूनोक्ति रहित, सब्भूएहिं - सद्भूतजिनमें कही हुई बात सर्वथा विद्यमान हो, अणिटेहिं - अनिष्ट - जो इष्ट न हों, अकंतेहिं - अकान्त - जो सुनने में अकमनीय-असुंदर हो, अमणुण्णेहिं - अमनोज्ञ-जिन्हें मन न बोलना चाहे, न सुनना चाहे, अमणामेहिं - अमनाम-जिन्हें मन न सोचना चाहे न स्वीकारना चाहे, जहारिहं- यथोचित, पायच्छित्ते - प्रायश्चित्त, पडिवजाहि - स्वीकार करो।
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