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अहमं अज्झयणं - आठवां अध्ययन श्वमणोपासक महाशतक
(६०) अट्ठमस्स उक्खेवओ। एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे. णयरे। गुणसिलए चेइए। सेणिए राया। तत्थ णं रायगिहे महासयए. णामं गाहावई परिवसइ, अड्ढे जहा आणंदो। णवरं अट्ठ हिरण्णकोडीओ सकं साओ णिहाणपउत्ताओ, अट्ठ हिरण्णकोडीओ सकंसाओ वुड्डिपउत्ताओ, अट्ठ हिरण्णकोडीओ सकंसाओ पवित्थरपउत्ताओ, अट्ठ वया दसगोसाहस्सिएणं वएणं।
कठिन शब्दार्थ - सकंसाओ - कांस्य परिमित-कांसे से बने एक पात्र विशेष से मापीतौली हुई।
__ भावार्थ - आठवें अध्ययन के प्रारम्भ में जंबू स्वामी के पूछने पर आर्य सुधर्मा स्वामी फरमाते हैं - “हे जंबू! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विद्यमान थे, तब राजगृह नगर के बाहर गुणशील उद्यान था। श्रेणिक राजा राज्य करते थे। राजगृह में ‘महाशतक' नामक गाथापति रहता था। जो आनन्द की भांति आढ्य यावत् अपराभूत था। उसके पास आठ करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का धन निधान-प्रयुक्त था, आठ करोड़ व्यापार में तथा आठ करोड़ की घर-बिखरी थी। दस हजार गायों का एक वज्र, ऐसे आठ वज्र प्रमाण पशु-धन था। .
विवेचन - "सकंसाओ" शब्द का अर्थ टीका में - 'सकंसाओ' ति कांस्येन द्रव्यमानविशेषेण यास्ता: संकास्याः' किया है। अर्थ में लिखा है द्रव्य नापने का कांस्य नाम का पात्र विशेष, जिसमें बत्तीस सेर वजन समा सकता है। पूज्यश्री अमोलकऋषिजी म. सा. ने 'संकसाओ' का अर्थ नहीं किया है।
तस्स णं महासयगस्स रेवईपामोक्खाओ तेरस भारियाओ होत्था, अहीण जाव सुरूवाओ। तस्स णं महासयगस्स रेवईए भारियाए कोल(ह)घरियाओ अट्ठ हिरण्णकोडीओ, अट्ठ-वया दसगोसाहस्सिएणं वएणं होत्था। अवसेसाणं
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