________________
१५०
श्री उपासकदशांग सूत्र 2-0-0--0-00-00-00-00-00-00--20-08-02-20-06-12-20-00-00-00-10-19-19-19-10-0-0-12-12-10-08-2-9-122-10-19-19-10-12-
भावार्थ - बहुत-से अणुव्रतों, गुणव्रतों आदि से आत्मा को भावित करते हुए सकडालपुत्र को चौदह वर्ष बीत गए। पन्द्रहवें वर्ष में किसी दिन वे पौषधशाला में भगवान् की धर्म-विधि की आराधना कर रहे थे। आधी रात के समय एक देव आया और नीलकमल के समान खड्ग लेकर कहने लगा - "यदि तू धर्म से विचलित नहीं होगा, तो तेरे तीनों पुत्रों के खण्ड-खण्ड कर, उबलते तेल में तल कर तेरे शरीर पर छिड़कुंगा सारा वर्णन चुलनीपिता के समान है। विशेषता यह है कि एक-एक पुत्र के नौ-नौ टुकड़े किए यावत् सकडालपुत्र निर्भय रह कर धर्माराधना करते रहे।
तए णं से देवे सद्दालपुत्तं समणोवासयं अभीयं जाव पासित्ता चउत्थंपि सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो सद्दालपुत्ता! समणोवासया! अपत्थियपत्थिया जाव ण भंजसि तओ ते जा इमा अग्गिमित्ता भारिया धम्मसहाइया धम्मविइज्जिया धम्माणुरागरत्ता समसुहदुक्खसहाइया तं साओ गिहाओ णीणेमि, णीणेत्ता तव अग्गओ घाएमि घाएत्ता णव मंससोल्लए करेमि, करेत्ता आदाणभरियसि कडाहयंसि अइहेमि, अइहेत्ता तव गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचामि, जहा गं तुमं अदुहट्ट जाव ववरोविजसि।' तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरइ।
कठिन शब्दार्थ - धम्मसहाइया - धर्म सहायिका - धार्मिक कार्यों में सहयोग करने वाली, धम्मविइजिया - धर्म वैद्या - धर्म की. संगिनी, धम्माणुरागरत्ता - धर्मानुरागरत्ता - धर्म के अनुराग में रंगी हुई, समसुहदुक्खसहाइया - सम सुख दुःख सहायिका - सुख और दुःख में समान रूप से हाथ बंटाने वाली। __ भावार्थ - सकडालपुत्र को निर्भय जान कर चौथी बार देव ने कहा - "हे सकडालपुत्र! मृत्यु की इच्छा वाले! यदि तू शीलव्रत, गुणव्रत का परित्याग नहीं करेगा, तो तेरी भार्या अग्निमित्रा जो तेरे लिए धर्म-सहायिका, धर्मानुरागिणी, सुख-दुःख में समान सहायिका है, उसे तेरे घर से लाकर तेरे सामने मार कर उसके नौ मांस-खण्ड करूंगा तथा उबलते हुए कड़ाह में डाल कर तेरे शरीर पर छिड़कुंगा जिससे तू आर्तध्यान करता हुआ अकाल में ही मृत्यु को प्राप्त होगा।" ऐसा कहने पर भी सकडालपुत्र निर्भय रहे।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org