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सातवां अध्ययन - श्रमणोपासक सकडालपुत्र - देवोपसर्ग
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तए णं से देवे सद्दालपुत्तं समणोवासयं दोच्वं पि तच्चं पि एवं वयासी-'हं भो सद्दालपुत्ता! समणोवासया! तं चेव भणइ। तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्तस्स समाणस्स अयं अज्झत्थिए ४ समुप्प(जित्था)ण्णे। एवं जहा चुलणीपिया तहेव चिंतेइ-'जेणं ममं जेटं पुत्तं, जेणं ममं मज्झिमयं पुत्तं, जेणं ममं कणीयसं पुत्तं जाव आयंचइ, जाऽवि य णं ममं इमा अग्गिमित्ता भारिया समसुहदुक्खसहाइया तं-पि य इच्छइ साओ गिहाओ णीणेणा मम अग्गओ घाएत्तए, तं सेयं खलु ममं एवं पुरिसं गिण्हित्तए' त्ति-कट्ठ उद्धाइए जहा चुलणीपिया तहेव सव्वं भाणियव्वं, णवरं अग्गिमित्ता भारिया कोलाहल सुणित्ता भणइ, सेसं जहा चुलणिपिया वत्तव्वया, णवरं अरुणभूए विपाणे उववण्णे, जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ(५)॥ णिक्खेवो॥
... ॥ सत्तमं अज्झयणं समत्तं॥ भावार्थ - उस देव ने दूसरी बार-तीसरी बार उपरोक्त वचन कहे तब सकडालपुत्र श्रमणोपासक को यह सुन कर विचार हुआ कि निश्चय ही 'यह कोई अनार्य-दुष्ट पुरुष है, जिसने पहले मेरे ज्येष्ठ पुत्र को फिर मंझले पुत्र को और फिर छोटे पुत्र को मेरे सामने मारा, नौ-नौ मांस-खण्ड किए तथा उन्हें मेरे शरीर पर छिड़क कर वेदना उत्पन्न की। अब यह मेरी धर्मसहायिका अग्निमित्रा भार्या को मार कर उसके नौ मांस-खण्ड कर मुझ पर छिड़कना चाहता है। अतः मेरे लिए उचित है कि इसे पकड़ लूँ।' ऐसा सोच कर ज्योंही पकड़ना चाहा, देव उड़ गया और खंभा ही हाथ आया। सकडालपुत्र ने कोलाहल किया, अग्निमित्रा भार्या ने उन्हें वस्तु-स्थिति समझाई तथा प्रायश्चित्त दे कर शुद्ध किया। शेष सारा वर्णन चूलनीपिता के समान जानना चाहिए। विशेष यह कि संलेखना संथारा कर के सौधर्म नामक प्रथम देवलोक के अरुणभूत विमान में उत्पन्न हुए। चार पल्योपम की स्थिति का उपभोग कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्त बनेंगे।
॥ सातवां अध्ययन समाप्त॥
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