Book Title: Upasakdashang Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 184
________________ आठवां अध्ययन - श्रमणोपासक महाशतक - रेवती ने सपत्नियों की हत्या कर दी १५५ ----------------------------2----0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0--2 तथा गोवज्र अपने अधीन कर के महाशतक के साथ निर्विघ्न मानवीय कामभोगों का उपभोग करूँ।" ऐसा मनोसंकल्प कर के रेवती उन बारह सोतों के छिद्रान्वेषण करने लगी। रेवती ने सपत्नियों की हत्या कर दी तए णं सा रेवई गाहावइणी अण्णया कयाइ तासिं दुवालसण्हं सवत्तीणं अंतरं जाणित्ता छ सवत्तीओ सत्थप्पओगेणं उद्दवेइ, उद्दवेत्ता छ सवत्तीओ विसप्पओगेणं उद्दवेइ, उद्दवेत्ता तासिं दुवालसण्हं सवत्तीणं कोलघरियं एगमेगं हिरण्णकोडिं एगमेगं वयं सयमेव पांडवज्जइ, पडिवज्जित्ता महासयएणं समणोवासएणं सद्धिं उरालाई भोगभोगाइं भुंजमाणी विहरइ।। ___ भावार्थ - रेवती गाथापत्नी के अवसर देख कर अपनी बारह सोतों को मारने का ठान लिया। उसने अपनी छह सोतों को शस्त्र प्रयोग से तथा छह सोतों को विष दे कर मार डाला और उनका बारह करोड़ का धन तथा बारह वज्र अपने अधीन कर लिए। अब वह अकेली ही 'महाशतक के साथ ऐन्द्रिक सुख भोगने लगी। तए णं सा रेवई गाहावइणी मंसलोलुया मंसेसु मुच्छिया गिद्धा गढिया अन्झोववण्णा बहुविहेहिं मंसेहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भजिएहि य सुरं च महुं च मेरगं च मज्झं च सीधुं च पसण्णं च आसाएमाणी विसाएमाणी परिभाएमाणी परिभुंजेमाणी विहरइ। . कठिन शब्दार्थ - मंसलोलुया - मांसलोलुप, मंसेसु - मांसभक्षण में, मुच्छिया - आसक्त, गिद्धा - लुब्ध, सोल्लेहि - सलाखा पर सेके हुए, तलिएहि - तले हुए, भज्जिएहिभूने हुए, सुरं - सुरा, महुं - मधु, मेरगं - मेरक, मज्जं - मद्य, सीधुं - सीधु, पसण्णंप्रसन्न-मदिरा विशेष, आसाएमाणी - आस्वादन करती, विसाएमाणी - मजा लेती, परिभाएमाणी - छक कर सेवन करती, परिभुंजेमाणी - बारबार सेवन करती। भावार्थ - रेवती गाथापत्नी मांसलोलुप, मांसभक्षण में आसक्त गृद्ध, लुब्ध तथा तत्पर रहती अर्थात् मांसाहार के बिना उसे चैन नहीं मिलता। वह लोहे की सलाखा पर सेके हुए, घी आदि में तले हुए, आग पर भूने हुए बहुत प्रकार के मांस एवं सुरा (जौ आदि धान्य से बना शराब) मधु (वह मद्य जिसके निर्माण में अन्य वस्तुओं के साथ शहद भी मिलाया जाता है) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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