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सातवां अध्ययन - श्रमणोपासक सकडालपुत्र - मैं भगवान् से विवाद.... . १४७
भावार्थ - तब सकडालपुत्र ने मंखलिपुत्र गोशालक से कहा कि - "हे देवानुप्रिय! जब आप इतने दक्ष, चतुर, निपुण, नयवादी, प्रसिद्ध वक्ता एवं विज्ञान वाले हैं, तो क्या आप श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के साथ शास्त्रार्थ कर सकते हैं?"
गोशालक ने उत्तर दिया - “नहीं, मैं भगवान् से विवाद नहीं कर सकता। मैं असमर्थ हूँ।" ___ 'से केण?णं देवाणुप्पिया! एवं वुच्चइ - णो खलु पभू तुब्भे मम धम्मायरिएणं जाव महावीरेणं सद्धिं विवादं करेत्तए?' 'सद्दालपुत्ता! से जहाणामए केइ पुरिसे तरुणे जुगवं जाव णिउणसिप्पोवगए एगं महं अयं वा एलयं वा सूयरं वा कुक्कुडं वा तित्तिरं वा वट्टयं वा लावयं वा कवोयं वा कविंजलं वा वायसं वा सेणयं वा हत्थंसि वा पायंसि वा खुरंसि वा पुच्छंसि वा पिच्छंसि वा सिंगंसि वा विसाणंसि वा रोमंसि वा जहिं-जहिं गिण्हइ तहिं-तहिं णिच्चलं णिप्फंदं धरेइ, एवामेव समणे भगवं महावीरे ममं बहहिं अटेहि य हेऊहि य जाव वागरणेहि य जहिं-जहिं गिण्हइ तहिं-तहिं णिप्पट्टपसिणवागरणं करेइ, से तेणटेणं सद्दालपुत्ता! एवं वुच्चइ-णो खलु पभू अहं तव धम्मायरिएणं जाव महावीरेणं सद्धिं विवादं करेत्तए'।
कठिन शब्दार्थ - णिउणसिप्पोवगए - निपुण शिल्पोगत - शिल्प या कला की सूक्ष्मता तक पहुँचा हुआ, अयं - बकरे को, एलयं - मेंढे को, सूयरं - सूअर को, कुक्कुडं - मुर्गे को, तित्तिरं - तीतर को, वट्टयं - बटेर को, लावयं - लवा को, कवोयं - कबूतर को, कविंजलं - पपीहे को, वायसं - कौए को, सेणयं - बाज को, हत्थंसि - हाथ, पायंसि - पांव, खुरंसि - खुर, पुच्छंसि - पूंछ, पिच्छंसि - पंख, सिंगंसि - सिंग, विसाणंसि - विश्राण, रोमंसि - रोम को, जहिं - जहां से, तहिं - वहां से, णिच्चलं - निश्चल-गति शून्य, णिप्पंदं - निस्पन्द-हलन चलन रहित, अहेहि - अर्थों, हेऊहि - हेतुओं, वागरणेहिविश्लेषणों से, णिप्पट्ठपसिणवागरणं - निरुत्तर। ___भावार्थ - सकडाल पुत्र ने पूछा - "हे देवानुप्रिय! आप श्रमण भगावन् महावीर स्वामी से विवाद क्यों नहीं कर सकते?"
गोशालक ने उत्तर दिया - "हे सकडालपुत्र! जैसे कोई चतुर शिल्प-कला का ज्ञाता युवक पुरुष किसी बकरे को, मेंढे को, सूअर, मुर्गे, तीतर, बटेर, लावक, कबूतर, कपिंजल, कौए
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