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श्री उपासकदशांग सूत्र
- सामायिक व्रत के अतिचार .. तयाणंतरं च णं सामाइयस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा ण समायरियव्वा, तंजहा - मणदुप्पणिहाणे, वयदुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे, सामाइयस्स सइअकरणया, सामाइयस्स अणवट्ठियस्स करणया है।
कठिन शब्दार्थ - सामाइयस्स - समभाव की आय रूप सामायिक के, मणदुप्पणिहाणेमन दुष्प्रणिधान, वयदुप्पणिहाणे - वचन दुष्प्रणिधान, कायदुप्पणिहाणे - कायदुष्प्रणिधान, सामाइयस्स सइ अकरणया - सामायिक स्मृति अकरणता, सामाइयस्स अणवट्टियस्स करणया - सामायिक-अनवस्थित-करणता।
भावार्थ - तदनन्तर श्रावक को सामायिक व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिये किन्तु आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं - १. मन दुष्प्रणिधान २. वचन दुष्प्रणिधान ३. काय दुष्प्रणिधान ४. सामायिक स्मृति अकरणता और ५. सामायिक अनवस्थित करणता।
विवेचन - सामायिक का उद्देश्य जीवन में समभावों का विकास करना है। क्रोध, मान, माया, लोभ जनित विषमता को मिटाना है। जहाँ सामायिक का यह उद्देश्य बाधित होता है वहाँ सामायिक की द्रव्य साधना होती है। हमें भाव सामायिक की आराधना करने के लिए सामायिक के इन अतिचारों से बचना होगा -
१. मनदुष्प्रणिधान - मनोयोग की दुष्प्रवृत्ति। मन के दस दोष लगाना। २. वचनदुष्प्रणिधान - वचन योग की दुष्प्रवृत्ति। वचन के दस दोष लगाना। ३. कायदुष्प्रणिधान - काय योग की दुष्प्रवृत्ति। काया के बारह दोष लगाना।
४. सामायिक की स्मृति नहीं रखना - 'मैंने सामायिक कब ली थी' इस प्रकार सामायिक के समय का ज्ञान नहीं रहना। सामायिक को भूल कर सावद्य-प्रवृत्तियाँ करने लग जाना।
५. सामायिक का अनवस्थितकरण - अव्यवस्थित रीति से सामायिक करना और सामायिक का काल-मान पूर्ण हुए बिना ही सामायिक पार लेना आदि।
सामायिक में मन का योग सावध चिंतन में जाने से मन दुष्प्रणिधान अतिचार लगता है। हिंसा, असत्य, चौर्य एवं संरक्षण संबंधी विचार रौद्रध्यान के अन्तर्गत हैं तथा इन्द्रिय विषयों में प्राप्ति का संरक्षण, अप्राप्ति की इच्छा आदि आर्तध्यान है। मन की गुप्ति, मन की समाधारणता, एकाग्रमनसंनिवेशन आदि के द्वारा मनदुष्प्रणिधान से बचा जा सकता है।
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