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प्रथम अध्ययन - श्रमणोपासक आनंद - व्रतों के अतिचार
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कठिन शब्दार्थ - कंदप्पे - कन्दर्प, कुक्कुइए - कौत्कुच्य, मोहरिए - मौखर्य, संजुत्ताहिगरणे - संयुक्ताधिकरण, उवभोगपरिभोगाइरित्ते - उपभोग परिभोगातिरेक।
भावार्थ - तदनन्तर श्रमणोपासक को अनर्थदण्ड विरमणव्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार है - १. कन्दर्प २. कौत्कुच्य ३. मौखर्य ४. संयुक्ताधिकरण और ५. उपभोग परिभोगातिरेक।
विवेचन - आठवें अनर्थदण्ड विरमण व्रत के पांच अतिचार इस प्रकार समझने चाहिये - १. कंदर्प - कामविकारवर्द्धक हास्यादि से ओतप्रोत वचन बोलना। २. कौत्कुच्य - हाथ, आँख, मुँह आदि की ऐसी चेष्टाएं, जिनसे लोगों का मनोरंजन हो। ३. मौखर्य - अनर्गल, असंबद्ध, क्लेशवर्द्धक एवं बहुत बोलना आदि ।
४. संयुक्ताधिकरण - ऊखल, मूसल, हल, कुदाल, कुल्हाड़ी, फावड़े, गेंती आदि के भिन्न अवयवों को संयुक्त कर रखना (यदि ये वस्तुएं असंयुक्त और पृथक्-पृथक् रखी जायें, तो काम में नहीं आ सकतीं। अतः संयुक्त नहीं रखनी चाहिए, ताकि मना न करना पड़े)।
५. उपभोगपरिभोगातिरिक्त - बिना आवश्यकता के उपभोग-परिभोग की सामग्री का . अतिरिक्त संचय।
अर्थ अर्थात् सकारण, सप्रयोजन। अत्यंत पारमार्थिक दृष्टि से तो प्रयोजन सिर्फ आत्मकल्याण के लिए पाप त्याग ही है पर सांसारिक जीवों के लिए हिंसादि पापों को दो भागों में बांटा गया है. - अपरिहार्य, आवश्यक, बिना किए नहीं चले, वे अर्थदण्ड हैं। परिहार्य, अनावश्यक, जिनके बिना भी काम चल सके, वे अनर्थ दण्ड है मनदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड - ये तीन दण्ड अर्थ व अनर्थ दोनों तरह से होते हैं। कान्दर्पिक वचन कहना 'वचन दण्ड' है। कौत्कुचिक अनर्थ 'कायदण्ड' है। मौखर्यता स्पष्टतः 'वचन दण्ड' है। संयुक्ताधिकरण और उपभोग परिभोग अतिरिक्त में तीनों अनर्थदण्डों के सम्मिलित होने का अनुमान है। . __ भगवान् ने सातवें उपभोग परिभोग में जो मर्यादा फरमाई वह विधि रूप है। यहाँ अतिरिक्त को अतिचार फरमाया है यह निषेध रूप है। मोक्ष मार्ग के अतिरिक्त पापों को प्रवर्ताने वाले सभी वचन मृषोपदेश में हैं। यहाँ के प्रथम व तृतीय अतिचारों में वचनों को फिर अमर्यादित फरमाया गया है। वस्तुतः सभी व्रत एक दूसरे से गूंथे हुए हैं। वे एक दूसरे को सहायता देने के लिए ही हैं। .. .
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