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प्रथम अध्ययन श्रमणोपासक आनंद - आनंदजी का अभिग्रह
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विवेचन - जैन दर्शन संलेखना के द्वारा साधक को मरने की कला सीखता है। संलेखना में साधक जीवन पर्यंत के लिए आहार त्याग तो करता ही है साथही लौकिक, पारलौकिक कामनाओं को भी छोड़ देता है। वह जीवन मृत्यु की कामना से भी ऊपर उठ जाता है, उसे न जीने की चाह रहती है और न मृत्यु से वह डरता है । वह यह भी नहीं सोचता है कि शीघ्र देह का अन्त हो जाय, आफत मिटे । वह तो सहज भाव से जब भी मौत आ जाती है शांति से उसका वरण करता है। आध्यात्मिक दृष्टि से यह पवित्र, उन्नत और प्रशस्त मनःस्थिति है इसलिए इसे 'पंडित मरण' कहा है। संलेखना व्रत के पांच अतिचार इस प्रकार हैं -
१. इहलोकाशंसा प्रयोग - आगामी मनुष्यभव में राजा - चक्रवर्ती आदि बनने की इच्छा करना । २. परलोकाशंसा प्रयोग - देवादि में इन्द्र अहमिंद्र, लोकपाल आदि बनने की इच्छा करना । ३. जीविताशंसा प्रयोग 'शरीर स्वस्थ है, लोगों में संथारे के समाचार से कीर्ति फैल
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रही है', अतः लम्बे काल तक जीवित रहूँ, ऐसी इच्छा करना ।
४. मरणाशंसा प्रयोग - बीमारी व कमजोरी ज्यादा होने से शीघ्र मरने की इच्छा करना । ५. कामभोगाशंसा प्रयोग मेरे संयम तप के फलस्वरूप मुझे उत्तम दैविक और मानवीय भोगों की प्राप्ति हो, ऐसी इच्छा करना ।
आनन्द जी का अभिग्रह (७)
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तणं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं सावयधम्मं पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - णो खलु मे भंते! कप्पड़ अज्जप्पभिड़ं अण्णउत्थिए वा अण्णउत्थियदेवयाणि वा अण्णउत्थिय परिग्गहियाणि वा वंदित्तए वा णमंसित्तए वा, पुव्विं अणालत्तेणं आलवित्तए वा संलवित्तए वा,
* आनन्दजी की प्रतिज्ञा के इस पाठ में प्रक्षेप भी हुआ है। प्राचीन प्रतियों में न तो 'चेइयाई' शब्द था और न 'अरिहंत चेइयाई' । भगवान् महावीर प्रभु के प्रमुख उपासकों के चरित्र में मूर्तिपूजा का उल्लेख नहीं होना, उस पक्ष के लिए अत्यन्त खटकने वाली बात थी । इसलिए इस कमी को दूर करने के लिए किसी मत-प्रेमी ने पहले 'चेइयाई' शब्द मिलाया। कालान्तर में किसी को यह भी अपर्याप्त लगा तो उसने अपनी ओर से एक शब्द
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