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तइयं अज्झयणं - तृतीय अध्ययन श्वमणोपासक चुलनीपिता
(२५) उक्खेवो तइयस्स अज्झयणस्स। एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी णामं णयरी (होत्था), कोट्ठए चेइए, जियसत्तू राया। तत्थ णं वाणारसीए णयरीए चुलणीपिया णामं गाहावई परिवसइ, अड्ढे जाव अपरिभूए। सामा भारिया। अट्ठ हिरण्णकोडीओ णिहाणपउत्ताओ, अट्ठ वुडिपउत्ताओ अट्ठ पवित्थरपउत्ताओ, अट्ठ:वया दसगोसाहस्सिएणं वएणं, जहा आणंदो राईसर जाव सव्वकज्जवड्डावए यावि होत्था। सामी समोसड्ढे, परिसा णिग्गया, चुलणीपियावि जहा आणंदो तहा णिग्गओ, तहेव गिहिधम्म पडिवज्जइ। गोयमपुच्छा तहेव सेसं जहा कामदेवस्स जाव पोसहसालाए पोसहिए बम्भयारी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उवसंपजित्ताणं विहरइ।
कठिन शब्दार्थ - उक्खेवो - उत्क्षेप, गोयमपुच्छा - गौतमपृच्छा।
भावार्थ - तृतीय अध्ययन का प्रारंभ-भगवान् सुधर्मा स्वामी फरमाते हैं - हे जंबू! उस काल उस समय जब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विचर रहे थे, वाणारसी नामक नगरी थी। वहाँ कोष्ठक नाम का उद्यान था। जितशत्रु राजा राज्य करता था। उस वाणारसी नगरी में 'चुलनीपिता' नामक गाथापति रहता था, जो ऋद्धिसम्पन्न यावत् अपराभूत था। उसके आठ करोड़ का धन निधान के रूप में, आठ करोड़ व्यापार में तथा आठ करोड़ की घर बिखरी थी। दस हजार गायों के एक वज्र के हिसाब से आठ वज्र थे। उसकी पत्नी का नाम 'श्यामा' था। भगवान् वहाँ पधारे। परिषद् आई। चुलनीपिता ने भी धर्म सुन कर आनन्दजी की भाँति श्रावकव्रत अंगीकार किया। कालान्तर में कामदेव की भाँति चुलनीपिता पौषधशाला में ब्रह्मचर्ययुक्त पौषध करता हुआ श्रमण-भगवान् महावीर स्वामी द्वारा फरमाई गई धर्म-प्रज्ञप्ति को स्वीकार कर आत्मा को भावित करने लगा।
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