Book Title: Upasakdashang Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 159
________________ श्री उपासकदशांग सूत्र दंसणधरे - अप्रतिहत ज्ञान दर्शन के धारक, तीयपडुप्पण्णमणागयजाणए - अतीत, वर्तमान और भविष्य - तीनों कालों के ज्ञाता, अहा अर्हत्-परम पूज्य, परम समर्थ, जिणे - जिनरागद्वेष के विजेता, सव्वण्णू - सर्वज्ञ, सव्वदरिसी - सर्वदर्शी, तेलोक्कवहियमहियपूइए तीन लोक द्वारा अर्चनीय ( पूजा योग्य) वंदनीय ( स्तवन योग्य) नमस्करणीय, सक्कारणिज्जेसत्करणीय, सम्माणणिज्जे - सम्माननीय, कल्लाणं कल्याण रूप, मंगलं - मंगलरूप, देवयं - देवरूप, चेइयं - ज्ञानवंत, पज्जुवासणिज्जे पर्युपासनीय, तच्चकम्मसम्पयासंपउत्ते - तथ्य कर्म - सत्कर्म रूप संपत्ति युक्त, वंदेज्जाहि - वंदना करना, पज्जुवासेज्जाहि - पर्युपासना करना, पाडिहारिएणं - प्रातिहारिक - ऐसी वस्तुएं जिन्हें साधु साध्वी उपयोग में लेकर वापस कर देते हैं, उवणिमंतेज्जाहि - आमंत्रित करना । भावार्थ - हे देवानुप्रिय ! कल यहां महामाहन, अप्रतिहत ज्ञान दर्शन (केवलज्ञान- केवलदर्शन) M के धारक, भूत, भविष्य और वर्तमान के सम्पूर्ण ज्ञाता, अर्हत्, जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, तीनों लोक में वंदनीय, महामहिम, त्रिलोक पूजित, सभी देव मनुष्य-दानव द्वारा अर्चनीय, वंदनीय, सत्कार सम्मान के योग्य, कल्याणकारी, मंगलकारी, देवाधिदेव, ज्ञान रूप यावत् पर्युपासना के योग्य, तथ्य कर्म - सम्पदा संप्रयुक्त तप प्रभाव से जिन्हें अनंत चतुष्ट्य, अष्टमहाप्रतिहार्य, चौतीय अतिशय आदि की प्राप्ति हुई है, ऐसे एक महापुरुष पधारेंगे । इसलिए तुम उन्हें वन्दन करना यावत् पर्युपासना करना, प्रातिहारिक- पीठ-पाट फलक-बाजोट, शय्या - ठहरने का स्थान, संस्तारक - बिछौने के लिए घास आदि हेतु उन्हें आमंत्रित करना । इस प्रकार दो-तीन बार कह कर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया। १ सकडालपुत्र की कल्पना (४६) १३० - Jain Education International - - - तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तेणं देवेणं एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए ४ समुप्पण्णे ' एवं खलु ममं धम्मायरिए धम्मोवएसए गोसाले मंखलिपुत्ते, से णं महामाहणे उप्पण्णणाणदंसणधरे जाव तच्चकम्मसंपयासंपउत्ते, से णं कल्लं इहं हव्वमागच्छिस्सइ । तए णं तं अहं वंदिस्सामि जाव पज्जुवासिस्सामि, पाडिहारिएणं जाव उवणिमंतिस्सामि' । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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