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सातवां अध्ययन - श्रमणोपासक सकडालपुत्र - भ० और सकडालपुत्र के प्रश्नोत्तर १३३
एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए ४ - ‘एस णं समणे भगवं महावीरे महामाहणे उप्पण्णणाणदंसणधरे जाव तच्चकम्मसंपयासंपउत्ते, तं सेयं खलु ममं समणं भगवं महावीरं वंदित्ता णमंसित्ता पाडिहारिएणं पीढफलग जाव उवणिमंतित्तए' एवं संपेहेइ, संपेहिता उट्ठाए उढेइ, उद्वेत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - ‘एवं खलु भंते! ममं पोलासपुरस्स णयरस्स बहिया पंच कुंभकारावणसया। तत्थ णं तुब्भे पाडिहारियं पीढ जाव संथारयं ओगिण्हित्ताणं विहरई।
भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर सकडालपुत्र आजीविकोपासक को यह ज्ञात हो गया कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी महामाहन्, अप्रतिहत ज्ञान दर्शन के धारक यावत् सत्कर्म संपत्ति युक्त है। अतः मेरे लिये यही श्रेयस्कर है कि मैं श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार करके प्रातिहारिक पीठ फलक हेतु आमंत्रित करूँ। इस प्रकार विचार कर वह उठा और उठ कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वंदन ‘नमस्कार किया और निवेदन किया - 'हे भगवन्! पोलासपुर नगर के बाहर मेरी पांच सौ दुकानें हैं आप वहां पाट पाटले आदि ग्रहण कर विराजें।'
तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एयमलैं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स पंचकुंभकारावणसएसु फासुएसणिजं पाडिहारियं पीढफलग जाव संथारयं ओगिण्हित्ताणं विहरइ। . भावार्थ - तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सकडालपुत्र आजीविकोपासक के इस कथन को स्वीकार किया और उसकी पांच सौ दुकानों में प्रासुक एषणीय प्रातिहारिक पीढ फलक यावत् संस्तारक ग्रहण कर वहां रहने लगे। भगवान् और सकडालपुत्र के प्रश्नोत्तर
(४६) । तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए अण्णया कयाइ वायाहययं कोलालभंडं अंतो सालाहिंतो बहिया णीणेइ, णीणेत्ता आयवंसि दलयइ। तए
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