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श्री उपासकदशांग सूत्र
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समाधि मरण-देवलोक गमन
(१५) तए णं से आणंदे समणोवासए बहूहिं सीलव्वएहिं जाव अप्पाणं भावेत्ता वीसं वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणित्ता एक्कारस य उवासगपडिमाओ सम्मं कारणं फासित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सहिँ भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोइयपडिक्कं ते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसगस्स महाविमाणस्स उत्तरपुरच्छिमेणं अरुणे विमाणे देवत्ताए उववण्णे। तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं आणंदस्सवि देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता।
कठिन शब्दार्थ - बहूहिं सीलव्वएहिं - बहुत से शीलव्रत. आदि से, समणोवासगपरियागं - श्रमणोपासक पर्याय का, पाउणित्ता - पालन कर, समाहिपत्ते - समाधि पूर्वक, सोहम्मवडिंसगस्स - सौधर्मावतंसक के, देवत्ताए - देव रूप में।
भावार्थ - आनंद श्रमणोपासक ने शीलव्रत आदि बहुत-से धार्मिक अनुष्ठानों से आत्मा को भावित करते हुए बीस वर्ष तक श्रावक-पर्याय का पालन किया, उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं का सम्यक् पालन किया, मासिकी संलेखना से शरीर व कषायों को क्षीण कर साठ भक्त तक अनशन का त्याग कर (सम्पूर्ण जीवन में लगे) दोषों की आलोचना कर योग्य प्रायश्चित्त-प्रतिक्रमण किया तथा आत्म समाधि युक्त काल कर के प्रथम देवलोक 'सौधर्म कल्प' के सौधर्मावतंसक महाविमान के ईशानकोण में स्थित अरुण नामक विमान में देव रूप में उत्पन्न हुए। वहाँ कई देवों की स्थिति चार पल्योपम की कही गई है, तदनुसार आनन्द देव की स्थिति भी चार पल्योपम की है।
विवेचन - श्रमणोपासक आनन्दजी की सत्वशीलता, निर्भीकता, स्पष्टता और सत्य प्रकट करने का साहस अनुकरणीय है। उन्हें जितना अवधिज्ञान हुआ, उतना गौतम स्वामी से निवेदन किया। अनुपयोगवश गौतम स्वामी ने उन्हें प्रायश्चित्त का फरमाया तो उन्होंने यह विचार नहीं किया कि 'ये भगवान् के प्रथम गणधर, प्रधान शिष्य तथा मुख्य अंतेवासी हैं। मैं इनका कहा मान कर प्रायश्चित्त ले लूँ। कदाचित् मेरी बात ठीक न हो। क्या ये झूठ कह सकते हैं?' उन्होंने
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