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श्री उपासकदशांग सूत्र 9----0-0-0-0-00-00-00-00-00-00--0-0-0-0-0-0-0-09--09-12-00-00-00-00-00-00--------
तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ चम्पाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयक्हिारं विहरइ।
कठिन शब्दार्थ - पसिणाई - प्रश्न, पुच्छइ - पूछे, अट्ठमादियइ - अर्थ-समाधान प्राप्त किया, जणवयविहारं - जनपदों में विहार।
भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का यह कथन बहुत से साधु साध्वियों ने ‘ऐसा ही है भगवन्!' यों कह कर विनयपूर्वक स्वीकार किया।
श्रमणोपासक कामदेव अत्यंत प्रसन्न हुआ उसने भगवान् से अनेक प्रश्न पूछ कर उनका समाधान प्राप्त किया। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को तीन बार वंदन नमस्कार कर जिस दिशा से आया था उसी दिशा में लौट गया।
तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वाभी भी किसी समय चम्पा से विहार कर अन्य जनपदों में विचरने लगे।
विवेचन - शक्रेन्द्र द्वारा प्रशंसा की जाने पर एक देव द्वारा पिशाच, हाथी एवं सर्प के . रूप बना कर उपसर्ग दिए जाने का वर्णन बड़ा ही रोमांचकारी है। कैसे श्रावक थे भगवान् के? कितनी निर्भीकता, कितनी कष्ट-सहिष्णुता! ! उनके आदर्श निर्भय जीवन से जितनी शिक्षा ली जाये उतनी कम है।
कष्टों को समभाव से सहा सो तो ठीक, पर साक्षात् तीर्थंकर देव द्वारा साधु-साध्वियों के मध्य 'महान् प्रशंसा' किए जाने पर भी उन्हें गर्व नहीं हुआ। वह बात भी कम नहीं है। मानसम्मान को पचा लेने की ऐसी अद्भुत क्षमता विरलों में ही होती है।
कामदेव श्रावक ने सविधि पौषध पाल कर वस्त्र-परिवर्तन किए। पौषध-सभा में जाने योग्य विशिष्ट वस्त्र नहीं थे।
शंका - “मूलपाठ में तो बिना पौषध पाले ही समवसरण में गये ऐसा वर्णन है, फिर 'आप सविधि पौषध' पालने की बात कैसे कह रहे हैं?"
समाधान - उन्होंने उपवास रूप पौषध नहीं पाला था। पारणा तो भगवान् के पास से लौटने के बाद किया था। यही आशय समझना चाहिए।
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