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श्री उपासकदशांग सूत्र
आनंद श्वावक का अवधिज्ञान विषयक वार्तालाप
(१४) तए णं से आणंदे समणोवासए भगवओ गोयमस्स तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाएसु वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - ‘अत्थि णं भंते! गिहिणो गिहिमज्झावसंतस्स ओहिणाणे समुप्पजइ?' हंता अत्थि। जइ णं भंते! गिहिणो जाव समुप्पजइ, एवं खलु भंते! ममवि गिहिणो गिहिमज्झावसंतस्स ओहिणाणे समुप्पण्णे - पुरत्थिमेणं लवणसमुद्दे पंच जोयणसयाइं जाव लोलुयच्चुयं णरयं जाणामि पासामि।
कठिन शब्दार्थ - गिहिणो - गृहस्थ को, गिहिमज्झावसंतस्स - गृहस्थ अवस्था (घर) में रहते हुए।
भावार्थ - आनंद श्रावक ने तीन बार मस्तक झुका कर गौतम स्वामी के चरणों में वंदना नमस्कार किया। वंदना नमस्कार कर इस प्रकार बोला - हे भगवन्!, क्या गृहस्थ अवस्था में रहते हुए एक गृहस्थ को अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है?
हाँ, हो सकता हैं।
तब आनंद ने कहा - हे भगवन्! मुझे भी अवधिज्ञान हुआ है जिससे मैं यहाँ रहा हुआ पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण में लवण समुद्र के ५००-५०० तक का क्षेत्र, उत्तरदिशा में चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत तक का क्षेत्र, ऊर्ध्व दिशा में प्रथम देवलोक तक तथा अधोलोक में लोलुयच्चुय नरकावास तक का क्षेत्र जानता देखता हूँ।
क्या सत्य का भी प्रायश्चित्त होता है? तए णं से भगवं गोयमे आणंदं समणोवासयं एवं वयासी - ‘अत्थि णं आणंदा! गिहिणो जाव समुप्पजइ, णो चेव णं एमहालए, तं णं तुमं आणंदा! एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव तवोकम्मं पडिवजाहिं'। ___ कठिन शब्दार्थ - ठाणस्स - स्थान की, आलोएहि - आलोचना करो, तवोकम्मं - तप कर्म, पडिवजाहि - स्वीकार करो।
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