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प्रथम अध्ययन - श्रमणोपासक आनंद - आनंद श्रावक को अवधिज्ञान
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उभरी हुई नाड़ियाँ दिखने लगी है। अतः जब तक मेरे शरीर में उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषार्थ पराक्रम, श्रद्धा, धृति और संवेग हैं तथा मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी गंधहस्ती के समान विचर रहे हैं तब तक मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं कल सूर्योदय होने पर अंतिम मारणांतिक संलेखना स्वीकार कर लूँ, आहार पानी का प्रत्याख्यान कर दूं, मरण की कामना न करता हुआ आराधना रत हो जाऊँ। ___ ऐसा विचार कर दूसरे दिन सवेरे अंतिम मारणांतिक संलेखना स्वीकार की तथा मृत्यु की चाहना न करते हुए वह आराधना में लीन हो गया।
आनन्द श्रावक को अवधिज्ञान तए णं तस्स आणंदस्स समणोवासगस्स अण्णया कयाइ सुभेणं अज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तदावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं
ओहिणाणे समुप्पण्णे। पुरत्थिमेणं लवणसमुद्दे पंचजोयणसयाई खेत्तं जाणइ पासइ, एवं दक्खिणेणं पच्चत्थिमेण य, उत्तरेणं जाव चुल्लहिमवंतं वासहरपव्वयं जाणइ पासइ, उड्ढे जाव सोहम्मं कप्पं जाणइ पासइ, अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुयं णरयं चउरासीइवाससहस्सटिइयं जाणइ पासइ। ____कठिन शब्दार्थ - सुभेणं - शुभ, अज्झवसाणेणं - अध्यवसायों-मनःसंकल्पों से, परिणामेणं - परिणामों - अन्तःपरिणति से, लेसाहिं - लेश्याओं, विसुज्झमाणाहिं - विशुद्ध होती हुई, तदावरणिजाणं - तदावरणीय (अवधिज्ञानावरणीय), कम्माणं - कर्मों के, खओवसमेणं - क्षयोपशम होने से, पंचजोयणसयाई - पांच सौ योजन, खेत्तं - क्षेत्र को, वासहरपव्वयं - वर्षधर पर्वत को, सोहम्मं कप्पं - सौधर्म कल्प (प्रथम देवलोक), लोलुयच्चुयंलोलुयच्चुय, चउरासीइवाससहस्सटिइयं - चौरासी हजार वर्ष की स्थिति।
_भावार्थ - तत्पश्चात् आनन्द श्रमणोपासक को अन्यदा किसी दिन शुभ अध्यवसायों से, शुभ मन-परिणामों से, लेश्याओं की विशुद्धि होने से तथा अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने से रूपी पदार्थों को विषय करने वाला अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ। उससे वे पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशा में पाँच सौ-पांच सौ योजन तक का लवणसमुद्र का क्षेत्र, उत्तर-दिशा में चुल्लहिमवंत वर्षधर पर्वत तक का क्षेत्र, ऊर्ध्व-दिशा में पहला देवलोक तथा अधो-दिशा में प्रथम नरक में चौरासी हजार की स्थिति वाले लोलुयच्चुय नरकावास तक का क्षेत्र जानने-देखने लगे।
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