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श्री उपासकदशांग सूत्र
आनन्दजी ने संथारा किया
(१२) तए णं से आणंदे समणोवासए इमेणं एयारूवेणं उरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं तवोकम्मेणं सुक्के जाव किसे धमणिसंतए जाए।
तए णं तस्स आणंदस्स समणोवासगस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्ता जाव धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयं अज्झथिए चिंतिए पत्थिए. मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं इमेणं जाव धमणिसंतए जाए, तं अस्थि ता में उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे सद्धाधिइसंवेगे, तं जाव ता मे अत्थि उट्ठाणे सद्धाधिइसंवेगे जाव य मे धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरइ ताव ता मे सेयं कल्लं जाव जलते अपच्छिममारणंतियसलेहणाझूसणाझूसियस्स भत्तपाणपडियाइक्खियस्स कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए' एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं पाउ जाव अपच्छिममारणंतिय जाव कालं अणवकंखमाणे विहरइ। ___ कठिन शब्दार्थ - तवोकम्मेणं - तप कर्म से, सुक्के - शुष्क, किसे - कृश, धमणिसंतएजाए - नाड़ियाँ दिखने लगी, उट्ठाणे - उत्थान-धर्मोन्मुख उत्साह, कम्मे - कर्मतदनुरूप प्रवृत्ति, बले - शारीरिक शक्ति दृढ़ता, वीरिए - वीर्य-आन्तरिक ओज, पुरिसक्कार परक्कमे - पुरुषाकार पराक्रम-पुरुषोचित पराक्रम या अन्तःशक्ति, सद्धा - श्रद्धा-धर्म के प्रति आस्था, धिई - धृति-सहिष्णुता, संवेगे - संवेग-मुमुक्षुभाव, धम्मायरिए- धर्माचार्य, धम्मोवएसएधर्मोपदेशक, जिणे - जिन-रागद्वेष विजेता, सुहत्थी - सुहस्ती, भत्तपाण पडियाइक्खियस्सखान-पान का प्रत्याख्यान-परित्याग, अणवकंखमाणस्स - कामना न करता हुआ। ___भावार्थ - तदनन्तर आनंद श्रमणोपासक ग्यारह प्रतिमाओं के साथ-साथ उग्र, उदार और विपुल मात्रा में उत्कृष्ट तप कर्म करने के कारण शरीर से बहुत कृश, रक्त मांस से रहित एवं शुष्क हो गए। शरीर में इतनी कृशता या क्षीणता आ गई कि उस पर उभरी हुई नाडियां दिखने लगी। ___एक दिन आधी रात्रि के बाद धर्म जागरण करते हुए आनंद श्रमणोपासक के मन में इस प्रकार का संकल्प (विचार) उत्पन्न हुआ कि मेरे शरीर में इतनी कृशता आ गई है कि उस पर
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