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श्री उपासक दशांग सूत्र
" पू० भूधरजी तत्शिष्य ऋषि जयमल नागौर मझे सं० १८०० चेत सुदी १० दिने । " आनन्दजी के अभिग्रह वर्णन में तथाकथित 'चेइयाई' का प्रासंगिक अर्थ यह है कि - "मैं अन्यतीर्थियों द्वारा प्रगृहीत साधुओं को वंदना - नमस्कार नहीं करूँगा ।" यदि हम कुछ क्षणों के लिए मान लें कि अन्यतीर्थियों द्वारा प्रगृहीत अरिहंत प्रतिमा को वंदना - नमस्कार नहीं करने का नियम लिया, किन्तु वंदना - नमस्कार के बाद जो 'बिना बोलाए नहीं बोलना' तथा 'आहार- पानी देने' की बात है, उसकी संगति कैसे होगी? वंदना - नमस्कार तो प्रतिमा को भी किया जा सकता है, परन्तु बिना बोलाए आलाप - संलाप और चारों प्रकार के आहार देने का व्यवहार प्रतिमा से तो हो ही नहीं सकता। यह कैसे संगत होगा ? पहले जो सलिंगी या साधर्मी साधु था, बाद में वह अन्यतीर्थियों में चला गया है, तो वह व्यापन्न एवं कुशील है। उसे वंदना - नमस्कार नहीं करने का नियम सम्यक्त्व की मूल भूमिका है। इसी उपासक दशा में आगे पाठ आया है कि सडालपुत्र पहले गोशालक का श्रावक था, बाद में भगवान् के उपदेश से जैन श्रावक बना, फिर गोशालक ने उसे अपना बनाना चाहा। ज्ञाताधर्मकथांग, सूयगडांग, निरयावलिका पंचक, भगवती आदि में अनेकों वर्णन मिलते हैं, जहाँ स्वमत से परमत में तथा परमत से स्वमत में आने के उल्लेख हैं । अतः परमतगृहीत जैन साधुओं को 'अण्णउत्थियपरिग्गहियाणि' के अन्तर्गत मानना उचित लगता है।
कप्पड़ मे समणे णिग्गंथे फासुएणं एसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं. वत्थपडिग्गहकम्बलपायपुंछणेणं पीढफलगसिज्जासंथारएणं ओसहभेसज्जेण य पडिला भेमाणस्स विहरित्तए' त्तिकट्टु इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ, अभिगिन्हित्ता पसिणाई पुच्छर, पुच्छित्ता अट्ठाई आदियइ, आदिइत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंद, णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ दूइपलासाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव वाणियगामे णयरे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सिवणंद भारियं एवं वयासी - 'एवं खलु देवाणुप्पिए! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंति धम्मेणिसंते, सेऽवि य धम्मे मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए, तं गच्छ णं तुमं देवाप्पिए! समणं भगवं महावीरं वंदाहि जाव पज्जुवासाहि, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्मं पडवज्जाहि' ।
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