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श्री उपासकदशांग सूत्र
पौषधोपवास के पांच अतिचार इस प्रकार हैं -
१. अप्रतिलेखित दुष्प्रतिलेखित शय्या संस्तारक - बिना प्रतिलेखन किए, अविधि पूर्वक या अधूरा प्रतिलेखन किए हुए शय्या स्थान व संस्तारक - दरी आदि बिछौने का पौषध में उपयोग करने से यह अतिचार लगता है।
ध्यान पूर्वक देखना प्रतिलेखन है। बिना देखा हुआ अप्रतिलेखित है। बिना ध्यान के देखा गया अथवा अधूरा देखा गया दुष्प्रतिलेखित है।
२. अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित शय्या संस्तारक - पूंजनी आदि से पूंजना प्रमार्जन है। जिसको पूंजा नहीं गया है वह अप्रमार्जित है। जिसका प्रमार्जन विधि पूर्वक नहीं हुआ है वह 'दुष्प्रमार्जित' है। पौषध में शय्या व संस्तारक में पूंजणी, डांडिया आदि से नहीं पूंजने से तथा । अविधिपूर्वक तथा अधूरा पूंजने से यह अतिचार लगता है। .
३. अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित उच्चार प्रस्रवण भूमि - उच्चार अर्थात् बड़ी नीत-मल प्रस्रवण अर्थात् लघुनीत-मूत्र, भूमि अर्थात् खुली जमीन। जहाँ मल मूत्र की बाधा निवारण करनी हो उस खुले स्थान की प्रतिलेखना नहीं करने से, अविधिपूर्वक करने से, अधूरी करने से यह अतिचार लगता है।
४. अप्रमार्जित दुष्प्रमार्जित उच्चार प्रस्रवण भूमि - परठने के पूर्व प्रमार्जन करने से वहाँ रहे हुए जीवों की यतना होती है अतः बिना प्रमार्जन किए, अविधिपूर्वक प्रमार्जन किए तथा अधूरा क्षेत्र प्रमार्जन किए जाने पर यह अतिचार लगता है।
उपरोक्त चारों अतिचार प्रतिलेखन-प्रमार्जन से संबंधित है।
५. पौषधोपवास का सम्यक् अननुपालन - प्रतिलेखन और प्रमार्जन के अतिरिक्त पौषध के जो दोष होते हैं उन सबका संग्रह इस अतिचार में होता है। भगवान् ने पौषधोपवास में जिन स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग, निद्राजय, निंदाजय आदि सम्यक् अनुष्ठान करने की आज्ञा फरमाई है वे नहीं करने से सम्यक् अनुपालना नहीं होती है। पौषधोपवास अविधि से लेना, अविधि से पारना, अकारण ही इधर-उधर घूमना, अकारण सो जाना, सावद्य पत्र पत्रिकाएं पढ़ना, विकथा करना आदि निषिद्ध प्रवृत्तियों को करने से भी सम्यक् अननुपालन रूप अतिचार लगता है।
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