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पठमं अज्झयणं - प्रथम अध्ययन
श्वमणोपासक आनंद
(१) तेणं कालेणं तेणं समएणं चम्पा णामं णयरी होत्था। वण्णओ। पुण्णभद्दे चेइए। वण्णओ।
कठिन शब्दार्थ - तेणं - उस, कालेणं - काल में, समएणं - समय में, होत्था - थी, वण्णओ - वर्णन के योग्य।
भावार्थ - उस काल (वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अंत में) उस समय (जब आर्य सुधर्मा स्वामी विराजमान थे) में चम्पा नामक नगरी थी। पूर्णभद्र नामक चैत्य था। दोनों का वर्णन औपपातिक सूत्र से जान लेना चाहिए।
- विवेचन - किसी भी वर्णन में समय का पुरावा (प्रमाण) देने से उसकी प्रामाणिकता बढ़ जाती है। यहाँ 'काल' और 'समय' दो शब्द आये हैं। साधारणतया ये पर्यायवाची हैं। जैन पारिभाषिक दृष्टि से इनमें अंतर भी है। काल वर्तना-लक्षण सामान्य समय का वाचक है और समय काल के सूक्ष्मतम सबसे छोटे भाग का सूचक है।
'तेणं कालेणं' पद से यहाँ इस अवसर्पिणी काल के चौथे आरे का ग्रहण किया गया है और 'तेणं समएणं पद से उसकी समाप्ति का वह समय ग्रहण किया गया है जब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी मोक्ष पधार चुके थे और भगवान् सुधर्मा स्वामी वीर शासन के द्वितीय पट्टधर बन गये थे। श्रेणिक सम्राट काल धर्म को प्राप्त हो चुके थे। कोणिक महाराज ने राजगृही छोड़ कर चंपा को राजधानी बना दिया था। जम्बूस्वामी भगवान् सुधर्मा स्वामी के प्रधान शिष्य बन चुके थे।
उस काल उस समय चंपा नामक नगरी थी। उसके ईशान कोण में पूर्णभद्र यक्ष का यक्षायतन था। नगरी और यक्षायतन का वर्णन उववाई सूत्र से ज्ञातव्य है। . शंका - चम्पा नगरी भगवान् के जमाने में थी और सुधर्मा स्वामी के जमाने में भी थी तो फिर जो है उसके लिए 'थी' पद क्यों दिया गया है?
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