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प्रथम अध्ययन - श्रमणोपासक आनंद - व्रत-ग्रहण
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चार हाथ = एक धनुष, दो हजार धनुष = १ कोस अर्थात् ८००० हाथ का एक कोस होता है अर्थात् १ हल में (२०००० हाथ में) ढाई कोस का क्षेत्र हुआ। एक हल में ढाई कोस तो ५०० हल में १२५० साढ़े बारह सौ कोस भूमि हुई।
वाणिज्य ग्राम नगर के चारों ओर आनंदजी ने सवा छह सौ सवा छह सौ कोस का क्षेत्र खुला रख कर छठे व्रत की मर्यादा की है।
मुनियों के लिए जो ढाई कोस का अवग्रह क्षेत्रीय व्यास पद्धति से बताया गया है। अपने स्थानक से चारों ओर वे दो कोस भोजन पानी लाने व आगे आधा कोस पंचमी के लिए जा सकते हैं। वैसे ही क्षेत्रीय व्यास की पद्धति से पूर्व पश्चिम के साढ़े बारह सौ कोस तथा उत्तर दक्षिण के साढ़े बारह सौ कोस माने जाते हैं। यह छठाव्रत है। - वर्तमान में उपलब्ध व्रतों की पाठ परम्परा अनुसार, पांचवां छठा और सातवां इन तीनों व्रतों से संबंधित मर्यादा पांचवें इच्छा परिमाणव्रत के अंतर्गत उपलब्ध है। लिपि परम्परा में किसी सूत्रं अथवा शब्दों में परिवर्तन हुआ हो ऐसा संभव है क्योंकि अतिचार दर्शक पाठ में छठे दिशाव्रत के अतिचार यथाक्रम से दिये हैं परन्तु उक्त सूत्रों में दिशाव्रत का स्पष्ट नाम नहीं है फिर भी दिशाव्रत की मर्यादा खेत्तवत्थु के अंतर्गत समाविष्ट होती है क्योंकि यहाँ खेत्तवत्थु की मर्यादा में ५०० हल प्रमाण भूमि की मर्यादा का उल्लेख है। ५०० हल प्रमाण भूमि सम्पूर्ण भारत देश प्रमाण होती है, अतः यह मर्यादा दिशाव्रत की ही हो सकती है।
तयाणंतरं च णं सगडविहिपरिमाणं करेइ, 'णण्णत्थ पंचहिं सगडसएहिं दिसायत्तिएहिं, पंचहिं सगडसएहिं संवाहणिएहिं, अवसेसं सव्वं सगडविहिं पच्चक्खामि ३'।
कठिन शब्दार्थ - सगड - छकड़े-शकट, दिसायत्तिएहिं - दिग् यात्रिक - यात्रा करने के लिए, संवाहणिएहिं - माल ढोने के लिए।
भावार्थ - तदनन्तर आनंद जी शकट-विधि का परिमाण करते हैं - ‘पांच सौ छकड़े (गाड़ियाँ) यात्रार्थ गमनागमन के लिए तथा पांच सौ छकड़े माल ढोने के लिए, शेष सब शकट विधि का प्रत्याख्यान करता हूँ।'
तयाणंतरं च णं वाहणविहिपरिमाणं करेइ, ‘णण्णत्थ चउहिं वाहणेहिं,
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