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प्रथम अध्ययन - श्रमणोपासक आनंद - व्रतों के अतिचार
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चाहिये किन्तु उनका आचरण नहीं करना चाहिये। वे इस प्रकार हैं - १. क्षेत्र वास्तु प्रमाणातिक्रमक्षेत्र वास्तु की मर्यादा का अतिक्रमण २. हिरण्य सुवर्ण प्रमाणातिक्रम - चांदी सोने की मर्यादा का अतिक्रमण ३. द्विपद-चतुष्पद प्रमाणातिक्रम - द्विपद - चतुष्पद की मर्यादा का अतिक्रमण ४. धन-धान्य प्रमाणातिक्रम - धन-धान्य की मर्यादा का अतिक्रमण ५. कुप्य प्रमाणातिक्रम - कुप्य की मर्यादा का अतिक्रमण।
विवेचन - इच्छा परिमाण व्रत के जो पांच अतिचार बतलाए गए हैं उनका सेवन न करना व्यक्ति की इच्छाओं के सीमाकरण की विशेष प्रेरणा देता है। ये पांच अतिचार हैं -
१. क्षेत्र वास्तु प्रमाणातिक्रम - क्षेत्र अर्थात् खुली जमीन और वास्तु अर्थात् ढंकी जमीन। जो क्षेत्रवास्तु की मर्यादा की है उसं का अतिक्रमण करना इस व्रत का प्रथम अतिचार है।
२. हिरण्य-सुवर्ण प्राणातिक्रम - हिरण्य-चांदी और मुवर्ण-सोना की मर्यादा का अतिक्रमण।
३. द्विपद-चतुष्पद प्रमाणातिक्रम - द्विपद - दो पैर वाले मनुष्य दास दासी तथा चतुष्पद - चार पैर वाले पशु-गाय, भैंस, बकरी, भेड़ आदि की जो मर्यादा की है उसका लंघन करना। उन दिनों दास प्रथा का प्रचलन था इसलिए गाय बैल आदि पशुओं की तरह दास, दासी भी स्वामी की सम्पत्ति होते थे।
४. धन धान्य प्रमाणातिक्रम - धन - राजकीय मुद्रा जो विनिमय के लिए अधिकृत हो और धान्य - गेहूँ, चावल, जौ आदि की जो मर्यादा की है उसका उल्लंघन करना।
५. कुप्य प्रमाणातिक्रम - कुप्य का तात्पर्य है घर बिखरी का सामान, सोना चांदी के अलावा शेष धातुएं, फर्नीचर, पलंग, बिस्तर, मोटर, स्कूटर आदि की सीमा का उल्लंघन, इस व्रत का अतिचार है। जानबूझ कर इन मर्यादाओं का अतिक्रमण करना अनाचार की श्रेणी में आता है।
__ दिशा व्रत के अतिचार तयाणंतरं च णं दिसिवयस्स पंच अइयारा जाणियव्वा ण समायरियव्वा, तंजहा - उहदिसिपमाणाइक्कमे, अहोदिसिपमाणाइक्कमे, तिरियदिसिपमाणाइक्कमे, खेत्तवुड्ढी, सइअंतरद्धा ६।।
कठिन शब्दार्थ - उड्ढदिसिपमाणाइक्कमे - ऊर्ध्वदिक् प्रमाणातिक्रम, अहोदिसिपमा
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