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श्री उपासकदशांग सूत्र **-12-08-12-08-28-12-19-19-19-02-12-29-12-28-12-2-8-12-28-02-28-08-2-10-19-12-28-12-28-12-28-08-28-02-28-02-28-08--10- पर भी इसका क्षय नहीं होने के कारण अक्षय हैं। गंगा सिन्धु नदियों के प्रवाह के समान अव्यय है। जम्बूद्वीप लवण समुद्र आदि द्वीप समुद्रों के समान अवस्थित है और आकाश के समान नित्य है।
यह द्वादशाङ्ग वाणी गणिपिटक के समान है अर्थात् गुणों के गण एवं साधुओं के गण को धारण करने से आचार्य को गणी कहते हैं। पिटक का अर्थ है - पेटी या पिटारी अथवा मंजूषा। आचार्य एवं उपाध्याय आदि सब साधु साध्वियों के सर्वस्व रूप श्रुतरत्नों की पेटी (मंजूषा) को 'गणिपिटक' कहते हैं।
जिस प्रकार पुरुष के बारह अंग होते हैं। यथा - दो पैर, दो जंघा, दो उरू (साथल) दो पसवाडे, दो हाथ, एक गर्दन और एक मस्तक। इसी प्रकार श्रुतरूपी परम पुरुष के भी आचाराङ्ग आदि बारह अंग होते हैं।
श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ग्यारह गणधर हुए थे। उनकी नौ वाचनाएं हुई। अभी वर्तमान में उपलब्ध आगम पांचवें गणधर श्री सुधर्मा स्वामी की वाचना के हैं। सम्पूर्ण दृष्टिवाद तो दो पाट तक ही चलता है। इसलिए दृष्टिवाद का तो विच्छेद हो गया है। वर्तमान में ग्यारह अंग ही उपलब्ध होते हैं। इन ग्यारह अंगों में सातवां अंग 'उपासकदशांग सूत्र' है। इसमें श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के अनेक गृहस्थ-उपासकों में से दस उपासकों का चरित्र वर्णन है।
इस सूत्र में दस अध्ययनों में दस आदर्श उपासकों का चरित्र होने के कारण यह उपासकदशांग सूत्र कहलाता है। ये दस ही श्रमणोपासक बीस वर्ष की श्रावक पर्याय, प्रतिमा आराधक, अवधि ज्ञान प्राप्त प्रथम स्वर्ग में उत्पाद, चार पल्योपम की स्थिति और बाद के मनुष्य भव में महाविदेह क्षेत्र में मुक्ति पाने वाले हुए। इस प्रकार की साम्यता वाले दस श्रमणोपासकों के चरित्र को इस सूत्र में स्थान दिया गया है। इसके प्रथम अध्ययन का वर्णन इस प्रकार है -
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