Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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विमलकीत्ति को बुलवाया। कुमार ने आकर इस भांति करबद्ध होकर अपने पिता को प्रणाम किया जैसे किसी शक्तिशाली देव को प्रणाम कर रहे हों। प्रणाम कर विनीत भाव से बोले
___ 'पाप मुझे गुरुत्वपूर्ण आदेश दीजिए । यह सोचकर चिन्तित न बनें कि मैं अभी बालक हूँ। आज किस शत्रु-राज्य को जय करना है ? किस पार्वत्य राजा को पर्वत सहित मैं दमन करूँ ? जलदुर्गवासी किस शत्र को जल सहित विनष्ट करूं ? जो आपको कंटक की तरह बींध रहा है, कहिए उसे तुरन्त उखाड़ दूं? बालक होने पर भी मैं आपका पुत्र हूं अतः जिसे दमन करना कठिन है उसे भी दमन करने में मैं समर्थ हूं। अवश्य ही यह क्षमता आपकी ही है, मैं तो पापका प्रतिबिम्ब हूं।'
(श्लोक ८४-८९) राजा ने कहा - 'कोई भी राजा मेरे प्रति शत्रुभावापन्न नहीं है। कोई भी पार्वत्य राजा मेरे आदेश की अवहेलना नहीं करता। किसी भी द्वीप के राजा ने मेरे विरुद्ध आचरण नहीं किया जिसके लिए हे दीर्घबाह पुत्र, मैं तुम्हें भेज'; किन्तु इस मरणशील शरीर में अवस्थान ही सवंदा मेरी चिन्ता का कारण रहा है अतः हे कुलभूषण, तुम इस पृथ्वी का भार ग्रहण करो। तुम इस भार को वहन करने में समर्थ हो। जिस भांति मैंने इस राज्य-भार को ग्रहण किया था उसी भांति तुम भी इसे ग्रहण करो ताकि मैं दीक्षा ग्रहण कर इस संसारी जीवन का परित्याग कर सक। गुरुजनों के आदेश को अमान्य नहीं किया जाता यह समझकर अभी जो तुम्हारे लिए पालनीय है इसे अन्यथा मत करना ।' (श्लोक ९०-९४)
कुमार सोचने लगा- 'गुरुजनों का आदेश और मेरी प्रतिज्ञा के कारण मैं इसका प्रत्युत्तर देने से वंचित हो गया हूँ।' राजा ने भी पुत्र का मनोभाव समझकर बड़ी धूम-धाम से स्व-हाथों से उन्हें सिंहासन पर अभिषिक्त किया।
(श्लोक ९५-९६) विमलकीत्ति द्वारा अनुष्ठित दीक्षा-पूर्व स्नानाभिषेक के पश्चात् राजा शिविका में बैठकर स्वयंप्रभसूरि के पास गए । श्रेष्ठ प्राचार्य से जो कुछ परित्यज्य था उसका परित्याग कर दीक्षा ग्रहण कर ली। संयम रथ पर आरूढ़ होकर पाभ्यन्तरिक शत्रु के आक्रमण से उन्होंने अपने संयम रूपी राज्य की समुचित भाव से रक्षा की। बीस स्थानक और अन्य स्थानकों की आराधना कर तीर्थकर गोत्र