Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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फिर भी मनुष्य स्वयं को अमर समझकर मूर्ख पशु की भांति जीवित रहते जीवन-वृक्ष के फल की प्राप्ति का प्रयास नहीं करते । अभी मेरे भाई दरिद्र हैं, अभी सन्तानें छोटी हैं, लड़की का विवाह करना है, पुत्र की शिक्षा की व्यवस्था करनी है, अभी तो मात्र विवाह किया है, माता-पिता वृद्ध हो गए हैं, सास श्वसुर भाग्यहीन हैं, बहन विधवा हो गई है - इसी प्रकार चिन्ता करते हैं जैसे वे चिरकाल तक उनकी रक्षा कर सकेंगे । मूर्ख मनुष्य कभी नहीं सोचते कि भव-समुद्र गले में बँधे पत्थर की तरह है ।
( श्लोक ६८-७१ )
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आज प्रियतमा का देह आलिंगन का श्रानन्द प्राप्त नहीं हुआ, पिष्टक की गन्ध नहीं मिली, आज मेरी माल्य-प्राप्ति की इच्छा पूर्ण नहीं हुई, आज मनोमुग्ध कर दृश्य देखने की वासना तृप्त नहीं हुई, वेणु या वीणा के संगीत का आज मुझे श्रानन्द नहीं मिला, घर का भण्डार आज भरा नहीं गया, जिस पुराने गृह को तोड़ डाला है उसका निर्माण नहीं हुआ, जो अश्व खरीदे हैं उन्हें प्रशिक्षित नहीं किया गया, द्रुतगामी वलद उत्कृष्ट रथ में जोते नहीं गए हैं इस भांति मूर्ख जीवन के अन्तिम समय तक परिताप करता रहता है; किन्तु मैंने धर्माचरण नहीं किया इसका परिताप कोई नहीं करता । यहां मृत्यु सदा मुँह बाए रहती है । फिर प्राकस्मिक मृत्यु भी तो है । रोग हैं और अनेक दुश्चिन्ताएँ हैं । एक ओर राग-द्वेष से शत्रु तो हैं ही दूसरी ओर प्रवृत्तियां जो कि युद्ध की भांति मृत्यु के कारण होती हैं । संसार जो मरुभूमि-सा है वहां ऐसा कुछ नहीं है जो सुख दे सके । हाय, मनुष्य, 'मैं प्राराम में हूं' ऐसा सोचकर संसार से विरक्त नहीं होता । जो ऐसी धारणा में मुग्ध है सोए हुए व्यक्ति पर आक्रमण करने की तरह मृत्यु उस पर सहसा पड़ती है । पके अन्न की भांति धर्म-साधना इसी नश्वर देह का फल है । नश्वर शरीर से विनश्वर अवस्था प्राप्त करने की बात करना खूब सहज है; किन्तु हाय, विमुग्ध मनुष्य वह करता कहां है ? अतः अब दुविधा न कर ग्राज से इस देह से निर्वारण रूप धन उपार्जन का प्रयास करूँगा और यह राज्य सम्पदा पुत्र को सौंप दूँगा । ( श्लोक ७२-८३) यह सोचकर राजा ने द्वार-रक्षक द्वारा अपने यशस्वी पुत्र