Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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खाने की वस्तु मिल जाती तो पिता भूखे पुत्र को रोते देखकर भी खाना नहीं देता । रास्तों पर घूमती माताएँ एक मुट्ठी मटर के दानों के लिए अपने पुत्र-पुत्रियों को उसी प्रकार बेच देते जिस प्रकार कंगाली में लड़कियां सूप बिक्री कर देती हैं। सुबह के समय घर के भूखे कबूतर जिस प्रकार प्रांगन से धान चुन-चुनकर खाते है उसी प्रकार क्षुधार्त्त व्यक्ति धनी व्यक्तियों के प्रांगन से धान्य बीज चुन-चुनकर खाते थे । रोटी की दूकानों से वे कुत्ते की तरह बारबार रोटी चुराकर ले जाने लगे । समस्त दिन भटकने के पश्चात् सन्ध्या तक किसी भी प्रकार से यदि उन्हें सामान्य सा खाद्य-पदार्थ भी मिल जाता तो वे स्वयं को भाग्यशाली समझते । कंकाल - से भयंकर पतित मनुष्यों से नगर का राजपथ भी श्मशान -सा लगने लगा । उनकी लगातार चीत्कार मानो कर्ण-रन्ध्रों को प्रतिपल सूई आकर बींध रही है ऐसी कर्णशूल हो गई थी । ( श्लोक २०-३४) इस भांति के भयंकर दुर्भिक्ष में चतुर्विध सघ को मानो प्रलयकाल घिर आया हो इस भांति परितप्त देखकर वे महामना राजा सोचने लगे - पृथ्वी की रक्षा करना मेरा कर्त्तव्य है; किन्तु मैं क्या करू ? दुःसमय शस्त्र द्वारा निवारित नहीं हो सकता । फिर भी किसी न किसी प्रकार मुझे संघ की रक्षा करनी होगी । कारण, महान् व्यक्ति के योग्य व्यक्ति की रक्षा करना सर्व प्रथम कर्त्तव्य है । ( श्लोक ३५-३७ ) ऐसा सोचकर राजा ने अपने रसोइयों को आज्ञा दी - 'आज से संघ के आहार के पश्चात् ही जो कुछ करूंगा और मेरे लिए जो आहार तैयार दिया जाएगा ।'
( श्लोक ३८-३९ ) ' जैसी आपकी प्राज्ञा' कहकर प्रधान रसोइए ने राजा की श्राज्ञा स्वीकार कर ली। इस आज्ञा का यथोचित रूप से पालन हो इसलिए राजा स्वयं देख-रेख करने लगे ।
बचेगा मैं उसे ग्रहरण होगा वह साधुत्रों को
( श्लोक ४० ) चावल जिनकी सुगन्ध पद्म सुवास-सी थी, उड़द के दानों से भी मोटे मटर, अमृत के सहोदर घृतोद समुद्र के जल से गाढ़ा विभिन्न प्रकार के सूप, तरल खाद्य, शर्करा मिश्रित मण्डक, मिठाई, सुपक्व फल, मर्मराल ( पापड़), घी में तली पूड़ी, चोष्य द्रव्य, तत्र, दूध, मीठा दही प्रादि राजा के आहार की तरह श्रावकों के श्राहार के लिए प्रस्तुत होने लगे । ( श्लोक ४१-४५)