Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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शास्त्रों में सर्वज्ञ का गुणगान रहता है उसी प्रकार उनकी वाणी से सर्वज्ञों का गुणगान उच्चारित होता रहता था। जबकि अन्य उनके चरणों में माथा झुकाते थे; किन्तु वे अपना मस्तक केवल अरिहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधुनों के चरणों में ही नत करते थे। दुःखदायी प्रार्तध्यान का अभाव होने के कारण वे शास्त्रों के स्वाध्याय से, अहंतों की पूजा से, मन, वचन, काया की उत्तम अवस्था को प्राप्त हुए थे। जिस भांति वस्त्र में नील का रंग बैठ जाता है उसी भांति श्रावक के द्वादश व्रत उनके हृदय में सुदृढ़ रूप में बस गए थे। उस महामना को जिस प्रकार द्वादश राजानों पर दष्टि थी उसी प्रकार श्रावक धर्म पर भी थी, पवित्रमना वे धर्म बीज रूप अर्थ सर्वदा सात क्षेत्रों में यथायोग्य रूप से वपन करते थे। उनके द्वार से प्रार्थी कभी भी खाली हाथ नहीं लौटता था। समुद्रोत्थित मेघ की भांति वे ही परम करुणामय दरिद्रों और अनाथ व्यक्तियों के प्राश्रय स्थल थे। वर्षा के जल की भांति वे दरिद्रों को धन दान करते थे। वे अहंकार से शून्य थे । अतः मेघ की भांति गरजते नहीं थे । कण्टक नाश के कुठार तुल्य व दान में कल्पतरु सम उन राजा के शासनकाल में पृथ्वी पर कोई दुःखी नहीं था।
(श्लोक ११-१९) एक बार उनके राज्य में भिक्ष पड़ा। भाग्य को जीतना कठिन है। वर्षा ऋतु होने पर भी आकाश श्याम वर्ण न होने से तथा वर्षा न होने पर वह वर्षा ऋतू भी ग्रीष्म की भांति दु:खदायी हो गई। प्रलयकालीन वायु की भांति नैऋत्य कोण की वायु ने प्रवाहित होकर वृक्षों को उखाड़ डाला व समस्त जलाशयों को सुखा दिया। आकाश काक के उदर की भांति पांशु वर्ण युक्त और सूर्य झालर की तरह उज्ज्वल हो गया। ग्राम और नगर के लोग शस्य के अभाव में वृक्षों की छाल, कन्द-मूल और फल खाकर संन्यासी की तरह जीवन व्यतीत करने लगे। भस्मक रोग-ग्रस्त व्यक्ति की तरह बहुत खा लेने पर भी उनकी क्षुधा ज्ञान्त नहीं होती थी। भिक्षा लेना लज्जास्पद होने के कारण लोग संन्यासी का वेष धारण कर भिक्षा लेने लगे।
(श्लोक २०-२६) आहार की खोज में माता-पिता-पुत्र एक दूसरे का परित्याग कर इधर-उधर घूमने लगे मानो वे राह भूल गए हों। यदि कहीं