Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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वे महामना राजा अपने हाथों से
दोषशून्य, ऐषणीय शुद्ध
प्रहार साधु और मुनिवरों को देने लगे । इसी भांति उस दुर्भिक्षकाल में राजा ने सम्मान और सत्कार के साथ संघ को आहार दान दिया । समग्र संघ की इस सेवा और भाव उल्लास के कारण राजा ने तीर्थंकर गोत्र कर्म उपार्जन किया । ( श्लोक ४६-४८ ) एक दिन जबकि वे प्रासाद की छत पर बैठे हुए थे पृथ्वी के छत्र की भांति प्रकाश में मेघ उदित होते देखा । उस मेघ ने विद्युत खिचित नीलाम्बर की तरह समस्त प्रकाश को प्रावृत कर लिया इसी बीच वृक्षराजि को मूल और पाताल भित्ति से उखाड़ते हुए भयानक तूफान आया। उस तूफान से नर्क के फल की तरह उस मेघ को मुहूर्त मात्र में छिन्न-भिन्न कर चारों ओर छितरा दिया । मुहूर्त भर के लिए मेघ श्राकाश में छाया और मुहूर्त्त भर में खो गया । यह देखकर राजा मन ही मन विचारने लगे - जिस भांति देखते-देखते मेघ उमड़ा उसी भांति देखते-देखते ही समाप्त हो गया । संसार की समस्त स्थिति ऐसी ही तो है । ये मनुष्य जो बातें कर रहे है, गीत गा रहे हैं, नाच रहे हैं, हँस रहे हैं, खेल रहे हैं, धनोपार्जन के लिए विविध प्रकार की चिन्ताएँ कर रहे हैं, चलतेफिरते, सोते-उठते, यान पर अवस्थान करते, क्रुद्ध व क्रीड़ारत, घर में या बाहर भाग्य द्वारा नियुक्त सर्प के द्वारा वे सहसा दंशित होते हैं, विद्युत्पात से मरते हैं, मदोन्मत्त हाथी के पैरों तले पिसते हैं, पुरानी प्राचीर के गिर जाने से दब जाते हैं, क्षुधात्तं बाघ द्वारा भक्षित होते हैं या दुरारोग्य रोगों से श्राक्रान्त होकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं । जंगली घोड़ों या ऐसे ही किसी जानवर द्वारा जमीन पर पटक दिए जाते हैं, दस्यु या शत्रुम्रों द्वारा छुरिकाहत होते हैं, प्रदीप से लगी आग से जलकर मरते हैं या प्रति वर्षा के कारण नदी में आई बाढ़ में बह जाते हैं या वात, पित्त, कफ का प्रकोप उनकी देह का उत्ताप शोषरण कर लेता है, अतिसार से पीड़ित होते हैं या भयंकर खांसी से अभिभूत हो जाते हैं या चर्मव्याधि से आक्रान्त होते हैं या क्षय रोगाक्रान्त होते हैं या बदहजमी से पीड़ित होते हैं, गठिया की पीड़ा से पीड़ित होते हैं, ग्रामाशय, कोष्ठकाठिन्य या फोड़ा - फुन्सियों से, भगन्दर से, हँफनी से, वात या यमदूत से नाना प्रकार की व्याधियों से प्राक्रान्त होकर मृत्यु को प्राप्त करते हैं । ( श्लोक ४९-६७ )