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की अपेक्षा अधिक आवश्यक है । जो सच्चरित्र नहीं है, वह स्वस्थ नहीं कहा जा सकता। वह शरीर जिसमें दूषित विचार भरे पड़े हैं। उसे रोगग्रसित ही समझना चाहिये। इसलिए यह स्पष्ट होता है कि सच्चरित्रता ही स्वस्थ्य की नींव है। हम लोगों को यह मानना पड़ेगा कि हमारे अन्दर कलुषित विचार भी एक भयानक रोग ही है।
विचार करने से हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि जिसके शरीर का गठन अच्छा है, जिसके दाँत आँख अच्छी दशा में हैं, जिसके कान स्वच्छ हैं, जिसकी त्वचा से दुर्गन्ध रहित पसीना खूब निकलता है, जिसके मुँह से बदबू नहीं आती और जिसके हाथ-पाँव अच्छी तरह अपना काम कर लेते हैं, जिसका शरीर
औसत दर्जे का है और जिसको अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार है वही पूर्ण स्वस्थ है।
ऐसा स्वस्थ शरीर पाना कठिन है और उसे पाकर कायम रखना और भी कठिन है। हम पूर्णतया स्वस्थ नहीं हैं, इसके मुख्य कारण हमारे माता-पिता हैं। एक प्रसिद्ध लेखक का कहना है कि यदि माता-पिता स्वस्थ हों तो उनकी सन्तान भी उनसे अधिक स्वस्थ होंगी। पूर्ण स्वस्थ मनुष्य मृत्यु से नहीं डरता है। मृत्यु से डरना अस्वस्थ होने का चिन्ह है। अस्तु, हमारा कर्तव्य है कि हम अपने को पूर्ण स्वस्थ बनावें । अब हमें यह देखना है कि हम पूर्ण स्वस्थ कैसे हो सकते हैं एवं प्राप्त किये हुये स्वास्थ्य को कैसे स्थिर रख सकते हैं।'
२-हमारा शरीर यह संसार आकाश, जल, हवा, अग्नि और पृथ्वी इन पाँच तत्त्वों से बना है। हमारा शरीर भी इन्हीं से बना है। शरीर में