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करते हैं एवं इससे भी अधिक बुरे कर्मों को करते हैं । यह कैसी लज्जा की बात है कि हम इन कुकर्मों को करके इस नश्वर शरीर की रक्षा करते हैं
जिस चीज में गुण होता है उसमें अवगुण का होना भी निवार्य है । यही दशा हमारे शरीर की भी है यदि ऐसा न हो तो एक बिना दूसरे का मूल्य ही नहीं समझ पायें । सूर्य जिसके ताप और प्रकाश में इस विश्व के जीवन का आधार है सभी वस्तुओं को जलाकर चार कर देने को भी शक्ति वर्तमान है । ऐसे ही एक राजा अपनी प्रजा की उन्नति एवं अवनति दोनों का ही कारण हो सकता है। इसी प्रकार यदि हम अपने मन पर अंकुश रखें तो यह शरीर सार्थक है अन्यथा निरंकुश होने से ही वह पतित अवस्था को प्राप्त होकर निरर्थक हो जाता है। कहा भी गया है कि "मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयः" अर्थात् मनुष्य का मन ही उसके मोक्ष तथा बन्धन दोनों का कारण होता हैं ।
हम लोगों के शरीर में अन्तरात्मा और कुवृत्ति ( पाप दोनों में सदैव संघर्ष हुआ करता है । इधर अन्तरात्मा शरीर पर अपना अधिकार जमाना चाहती है और उधर पापरूपी शैतान उसे अपने वश में करना चाहता है । यदि अन्तरात्मा की विजय हुई तब तो यह शरीर दिव्य होकर रत्नों की एक खान बन जाता है और यदि शैतान की विजय हुई तो यह महापापों का घर बन जाता है। ऐसा शरीर साक्षात् नर्क के समान है, जिसमें सड़ने गलने वाले पदार्थ भरे जाते हैं। जिससे दुर्गन्ध पैदा होता है, जिसके हाथ-पाँव सदैव बुरे कर्मों को करते हैं, जिह्वा ऐसे पदार्थों का स्वाद चाहती है जिसे नहीं खाना चाहिये और वह सदैव ऐसी वाणी बोलती है जिसे नहीं बोलना चाहिए। उसकी आँखें ऐसी वस्तुओं को देखना चाहती हैं जो देखने योग्य नहीं है ।