________________
निर्विवाद है कि शरीर को सर्वोपरि समझना, सुख चैन करना और सके ऊपर गर्व करने को ही अगर स्वास्थ्य रक्षा का मुख्य अभिय समझा जाय तो इससे तो अच्छा यही होगा कि इसमें पित्तादि विकार भरे पड़े रहें ।
सभी धर्म वाले इस बात को मानते हैं कि हम लोगां का र ईश्वर का वासस्थान है, तथा इसी के द्वारा हम उसे प्राप्त र सकते हैं । अतः हमारा कर्तव्य है कि जहाँ तक हो सके इसे हर तथा भीतर से स्वच्छ एवं कलंक- रहित रखा जाय ताकि मय आने पर हम इसे उसी पवित्र अवस्था में ईश्वर को सौंप कें । जिस अवस्था में हमने इसे प्राप्त किया था। यदि हम इस नयम का भलिभाँति पालन करें तो ईश्वर प्रसन्न होकर अवश्य हमें इसका प्रतिफल देगा और हमें अपना सच्चा पुत्र मझेगा ।
ईश्वर ने सभी जीवों की आकृति प्रायः एक-सी ही बनाई है। नी सब में देखने, सुनने, खाने-पीने, गन्ध लेने और भोग करने की क्ति एक सी है, लेकिन मनष्य शरीर सब में श्रेष्ठ है इसी कारण म इसे 'चिन्तामणि' अथवा सभा वस्तुओं को प्राप्त कराने वाला हते हैं । केवल मनुष्य ही ज्ञान द्वारा ईश्वर की उपासना कर कता है ज्ञान ही उपासना से मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती और नामुक्ति से सच्चा आनन्द नहीं मिल सकता ।
हमारा स्थूल शरीर तभी सार्थक हो सकता है जब कि हम से ईश्वर का मन्दिर मानेंगे एवं उसी की आराधना के लिये से अर्पित कर देंगे । यह रक्त, मांस और हड्डियों के अलावा और कुछ भी नहीं है और इससे जो मल-मूत्र निकलता हैं सिवाय ष के और कुछ नहीं हैं । जो गन्दगी हमारे शरीर से निकलती , उसे छूना तो दूर रहा हम उसे ध्यान में भी नहीं लाते। इस रीर का पालन करने के लिए हम झूठ बोलते हैं, विश्वासघात