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सके कान ऐसे शब्दों को सुनना चाहते हैं जो सुनने के योग्य नहीं और नाक ऐसे गन्ध को चाहता जो सूँघने योग्य नहीं । फिर लोग र्क को तो भूल कर स्वर्ग नहीं कहते लेकिन ऐसे शरीर जो नर्क से भी बुरा है स्वर्ग के मानिन्द सगझते हैं । इसके म्बन्ध में हमारे विचार कैसे पतित है और हमारा गर्व कैसा णित है । पाखाना को पाखाना और महल को महल की दृष्टि - देखना चाहिए। ठीक यही अवस्था हमारे शरीर की है। शरीर
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अन्तरात्मा के वश में रख कर कुवृत्तियों के वश में रख कर आरोग्य की इच्छा करने के बदले उससे नाश की ही इच्छा सुख र है ।
- आरोग्य के सम्बन्ध में मैं सदा यही कहता आया हूँ कि स्तविक स्वाभ्य हम तभी प्राप्त कर सकते हैं जब हम लोग उसके नयमों का सच्चे रूप में पालन करेंगे। बिना स्वास्थ्य के सच्चा ख नहीं प्राप्त हो सकता और हम तभी स्वस्थ हो सकते हैं जब म अपने जिह्वा को वश में करें, जब हम अपने खाद्य पदार्थ में
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धानी रखेंगे तो अन्य इन्द्रियाँ आप ही आप दमन हो वेंगी। जिसने अपने इन्द्रियों को वश में कर लिया है. उसने स्तव में संसार को वश में कर लिया है और वह ईश्वरीय अंश 'जाता है। लेकिन रामायण पढ़ने से राम, गीता से कृष्ण, रा. से खुदा और बाइबिल से ईसामसीह नहीं प्राप्त हो सकते । तो तभी मिलंगे जब हम वैसा आचरण करेंगे । सत् कर्मों र सच्चरित्रता अवलम्बित है और सत् कर्म सत्य पर निर्भर हैं। नतः सत्यता ही सब का मूल है । यही हमारे सत् कर्मों एवं सफलता की कुंजी है यदि हम इन प्रकरणों के आधार पर थोड़ा सत्य के प्रेमी बनं तो इस पुस्तक के लिखने का परिश्रम मैं फल समकूँगा' ।
* समाप्त *