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आक्रमण करता है । और बहुत ही घातक होता है। रोगी को अधिक ज्वर हो जाता है, स्वाँस लेने में उसे कष्ट मालूम होता है और कभी-कभी वह बेहोश हो जाता है । इस किस्म का रोग पहले-पहल जोहन्सवर्ग में सन् १९०४ ई० में शुरू हुआ था । इस बारे में पहले कहा गया है कि तेईस रोगियों में केवल एक बच सका था इस पर प्रायः वे सभी उपचार प्रयोग में लाये जा सकते हैं जो 'व्यूवानिक प्लेग' पर काम में लाये जाते हैं, अन्तर इतना ही है कि पुलटित को इस रोग में सीने के दोनों बगल मे बाँधना चाहिए । यदि 'वेट - शीट- पैक' के प्रयोग करने का मौका न मिले तो पतली पुलटिस सिर में बाँधना चाहिए। यह कहने को आवश्यकता नहीं है कि इस रोग का उपचार करने से पहले इसके रोकने की व्यवस्था करनी चाहिए। प्लेग और इसके रोकने में प्रायः एक से ही उपचार काम में लाये जाते हैं ।
हम लोग कालरा या हैजा ( महामारी ) से भी उतना ही डरते हैं जितना कि प्लेग से, लेकिन यह रोग इतना भयानक नहीं हैं । इस रोग में 'वेट - शीट-पैक' से कुछ लाभ नहीं होता। मिट्टी की पुलटिस रोगी के पेट पर बाँधना चाहिए। जिस अङ्ग में सनसनी मालूम होती हो उसे गरम पानी को बोतल से सेंकना चाहिए । पाँव में सरसों का तेल मलना चाहिए और रोगी को उपवास करना चाहिए। रोगी को घबड़ाहट न मालूम हो इसको सावधानी रखनी चाहिये । यदि उसे दस्त जल्द- जल्द आता हो तो उसे बार बार बिस्तरे से नहीं उठाना चाहिए। बल्कि एक चौड़े मुँह का बर्तन चारपाई के नीचे दस्त इकट्ठा करने के लिए रख देना चाहिए। यदि इस रोग में पहले से ही सावधानी रखी जाय तो खतरे का डर नहीं रहता । यह रोग बहुधा गर्मी के दिनों में हुआ करता है क्योंकि गर्मी के दिनों में हम हर किस्म के कच्चे-पक्के फल खाते हैं। पानी भी उन दिनों में प्रायः गन्दा ही होता है और