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होने लगते है और असमय में ही बुढ़ापा आ घेरता है फलतः हम निकम्मे और भारस्वरूप हो जाते हैं ।
लेकिन प्रकृति यह नहीं चाहती। उसका नियम ठीक इसके प्रतिकूल है। ज्यों-ज्यां हम बुडढे होते जाएँ, हमारी बुद्धि भी बढ़नी चाहिए और जितना हो हम अधिक दिन जोवित रहें हमें अपने अनुभव से दूसरों को लाभ पहुंचाना चाहिए। जो सच्चे ब्रह्मचारी हैं वे ऐसा ही करते हैं। वे मृत्यु से भी नहीं डरते और न उनकी शिकायत हो करते हैं वे प्रसन्नता पूर्वक मृत्यु की गोद में बैठते हैं और धीरता-पूचक परमात्मा के सन्मुख न्याय के लिये उपस्थित होते हैं ऐसे ही स्त्री-पुरुषों का जीवन सार्थक कहा जा सकता है।
हम प्रायः इस पर विचार नहीं करते कि ब्रह्मचर्य का नाश ही प्रमाद, मत्सय, अभिमान, क्रोध, आधीनता, आडम्बर आदि का प्रधान कारण है। यदि हमारा मन हमारे वश में नहीं है और प्रतिदिन बच्चों की तरह नादानी करता है तो हमें कोई भी पाप करने में हिचकिचाहट नहीं होती, और हम अपने किये हुए कार्यो का दुष्परिणाम भी नहीं सोच सकते।
सवाल हो सकता है कि सच्चे ब्रह्मचारी को किसने देखा है। अगर सभी ब्रह्मचारी ही बन जायँ तो सृष्टि का ही लोप हो जाय। यह प्रश्न विचारणीय है किन्तु इसमें कुछ अंश तक धार्मिकता आ जाती है, अतः इस विषय को यहीं छोड़ कर हम केवल सांसारिक दृष्टि से ही विचार करेंगे। हमारी समझ में ये दोनों ही प्रश्न हमारे मिथ्याभय और कमजोरी के सूचक हैं । हम ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करना चाहते इसलिए ऐसे प्रश्नों को उठा कर मुख्य विषय को हटा देना चाहते है। दुनियाँ में ब्रह्मचर्य के पालन करने वाले बहुत है, परन्तु यदि वे हमें यों ही मिल जाय