Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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[२. कोपनिषेधैकविंशतिः] 22 ) फोपोऽस्ति पस्य मनुजस्य निमित्तमुक्तो नो तस्य कोऽपि कुरुते गुणिनोऽपि भक्तिम् ।
आशीषिवं भजति को ननु देवशूक नानोरोगशमिना मणिनापि युक्तम् ॥१॥ 23) पुण्यं चित व्रतसपोमियमोपवासः क्रोधःक्षणेन पहतीन्धनवमुताशः। ....... मत्वति तस्य वंशमेतिन यो महात्मा तस्यामिद्धिमुपयाति नरस्य पुण्यम् ॥२॥ 24) दोषं न नृपतयो रिपयोऽपि रुष्टाः कुर्षन्ति केसरिकरीन्द्रमहोरगा वा । ....
धर्म निहत्य भवकाननदाववाहि के दोषमत्र विदधाति मरस्य रोषः॥ ३ ॥ . यस्य मनुजस्य निमित्तमुक्तः कोपः अस्ति तस्य गुणिनः अपि सतः कोऽपि भक्तिं नी कुरुते । ननु का नानोमरोगशमिना मणिना युसम् अपि दम् आशीवि भजति ॥ १॥ हुताशः इन्धनवन् क्रोधः व्रततपोनियमोपवासैः चितं पुण्य क्षणेन दहति इति मत्वा यो महात्म्स तस्य वर्श न एति तस्य नरस्य पुण्यम् अभिवृद्धिम् उपयाति ॥ २॥ अत्र नरस्य रोषः भवकाननदाववहिं धर्म निहत्य यं दोषं विदधाति त दोष कष्टाः नृपतयः रिपवः केसरिकरीन्द्रमहोरगाः वा न कुर्वन्ति ॥ ३ ॥ : जिस मनुष्पके बिना किसी कारणके ही क्रोध उत्पन्न हुआ करता है वह गुणयान् भी क्यों न हो, किन्तु उसकी कोई भी भक्ति नहीं करता है। ठीक है- ऐसा कौन-सा बुद्धिमान् मनुष्य है जो कि अनेक तीन रोगोंको नष्ट करनेवाले मणिसे भी युक्त होनेपर वार बार काटनेके अभिमुख हुए आशीविष सर्पसे प्रेम करता हो! अर्थात् कोई नहीं करता ॥ विशेषार्थ-क्रोध एक प्रकारका यह विषैला सर्प है कि जिसके केवल देखने मात्रसे ही प्राणी विषसे सन्तप्त हो उठता है। इसीलिये जिस प्रकार कोई भी विचारशील प्राणी अनेक रोगोंको शान्त करनेवाले मणिसे संयुक्त होनेपर भी सर्पसे अनुराग नहीं करता, किन्तु उससे सदा भयभीत ही रहता है, उसी प्रकार अकारण ही क्रोधको प्राप्त होनेवाले गुणवान् भी मनुष्यसें विवेकी जन अनुराग नहीं करते हैं । कारण कि जैसे उस आशीविष सर्पकी संगतिसे प्राणीको अपने प्राण जानेका भय रहता है वैसे ही बुद्धिमान् मनुष्योंको उस क्रोधी मनुष्यकी संगतिसे भी ऐहिक और पारलौकिक अनिष्ट होनेका भय रहता है ॥ १॥ क्रोध, व्रत, रूप, नियम और उपवासके द्वारा संधित किये हुए पुण्यको इस प्रकारसे क्षणभरमें नष्ट कर देता है जिस प्रकारसे कि अग्नि क्षणभरमें इन्धनको मस्म कर देती है। ऐसा विचार करके जो महात्मा पुरुष उस क्रोधके अधीन नहीं होता है उसका पुण्य वृद्धिको प्राप्त होता है ॥२॥ मनुष्यका क्रोध संसाररूप वनको भरम करनेमें दावानलकी समानताको धारण करनेवाले धर्मको नष्ट करके यहाँ जिस दोषको करता है उस दोषको क्रोधके वशीभूत हुए राजा, शत्रु, सिंह, गजराज और महासर्प भी नहीं करते हैं। अभिप्राय यह है कि क्रोध प्राणीका सबसे अधिक अहित करनेवाला शत्रु है। कारण कि क्रोधको प्राप्त हुए शत्रु या राजा आदि केवल प्राणों तक अपहरण कर सकते हैं, किन्तु वे धर्मको नष्ट नहीं कर सकते हैं। परन्तु यह क्रोधरूप शत्रु तो जीव प्राणवरण के साथ धर्मको भी नष्ट कर देता है, जिससे कि उसे उभय लोकोंमें ही दुख
1 स om. sपि ! २ स नाभोग । ३ स विहत्य ।