Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 21
________________ -21 : १-२१ १. विषयविचारकत्रिंशतिः 20) श्रुतिसंहजविवेकशानेसंसर्गदीशस्तिमिग्दलनदक्षाः सर्यदात्यन्तदीप्ताः । __ प्रकदितनयमार्गा यस्य पुंसोऽत्र सन्ति स्खलति यदि स मार्ग तत्र देवापराधः ॥२०॥ 21) जिनपतिपदभक्तिर्भावना जैनतखे विषयसुखविरक्तिर्मित्रता सत्त्ववर्गे।। श्रुतिशमयमसतिर्मूकनान्यस्य दोषे मम भवतुं च योधिर्यावदामोमि मुक्तिम् ॥२१॥ ॥इति" विषयविचारैर्विशतिः ॥ १॥ तिमिरदलनदक्षाः प्रकटितनयमार्गः श्रुतिसहजविवेकज्ञानसंसर्गदीपाः सन्ति त यदि मार्गे स्वलति तत्र देवापराधः [ एव शेयः ] ॥ २० ॥ [अहम् ] यावत् मुक्तिम् आमोमि [ तावत् ] मम जिनपतिपदभक्तिः जैनतत्त्वे भावना विषयसुखविरक्तिः सत्त्ववर्ग मित्रता श्रुति-शमन्यमसक्तिः अन्यस्य दोषे मूकता बोधिध भवतु ॥ २१ ॥ ॥ इति विषयविचारेकविंशतिः ॥ १॥ रूप दीपक विद्यमान है वह यदि मार्ग में भ्रष्ट होता है तो इसमें दैवका अपराध समझना चाहिये । विशेषार्थ-दीपकका काम मार्गको दिखलाना है। परन्तु यदि कोई दीपकको ले करके भी गद्दे बादिमें गिरता है तो इसमें उस दीपकका दोष नहीं है, बल्कि उसके भाग्यका ही दोष है। इसी प्रकार जिस मनुष्यके पास उस दीपकके समान न्यायमार्गको दिखलानेवाले- हेयाहेयको प्रगट करनेवाले-आगमज्ञान एवं स्वाभाविक विवेकज्ञान आदि विद्यमान हैं। फिर भी यदि वह कल्याणके मार्ग से भ्रष्ट होता है तो इसमें उसके भाग्यका ही दोष समझना चाहिये, न कि उन आगमज्ञानादिका । कारण कि उनका काम केवल योग्य और अयोग्यके स्वरूपको बतलाना है सो वे बतलाते ही हैं। फिर यदि वह योग्यायोग्यका विचार करता आ भी कल्याणके मार्गसे विमुख होता है तो इसका कारण उसके दुर्भाग्यको ही समझना चाहिये ॥ २०॥ जब सक मैं मुक्तिको प्राप्त नहीं होता हूँ तब तक मुझे जिनेन्द्र देवके चरणों में अनुराग, सर्वज्ञोक्त वस्तुस्वरूएका विचार, विषयजन्य सुखसे विमुखता, समस्त प्राणिसमूहके विषय, मित्रता; आगम, कषायोंकी शान्ति एवं ब्रत-नियममें आसक्ति; अन्यका दोष प्रगट करनेमें गंगापन (चुप्पी) और बोधि (रत्नत्रय) प्राप्त हो। [अभिप्राय) यह है कि जो भव्य जीत्र आत्मकल्याणका इच्छुक है वह निरन्तर यह विचार करता है कि हे भगवन् ! जब तक मोक्ष प्राप्त नहीं होता है तब तक ऐसी मुझे बुद्धि प्राप्त हो कि जिसके प्रभावसे मैं निरन्तर जिनेन्द्रकी भक्ति आदि उपर्युक्त हितकारक कार्यों में ही प्रवृत्त रहूँ ॥ २१॥ इस प्रकार इक्कीस श्लोकोंमें विषयसुखके स्वरूपका विचार समाप्त हुआ || १ || १ स श्रुत । २ स विवेक । ३ सज्ञानि । ४ स पुंसे । ५ स भुक्ति । ६ स श्रुत । ७ स om. शमयम, समग्रम । ८ स शक्ति ९ स मम भूवतु । १८ स मुक्त्यं । ११ स om. इति । १२ स इति सांसारिकविषयनिराकरणम् ।

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