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4 सिद्धान्तसार
एम कयुं ? गो० हे गौतम! ज० जेने को० क्रोध, मा० मान, मा० माया ने लो० लोन, वो० ए कषाय विछेद ( उपशान्त तथा कय ) थया होय त० तेने ५० इरियावदी क्रिया लागे. ज० जेने को० क्रोध, मान, माया ने लाज, ए कषाय अ० विछेद गया न होय त० तेने सं० संप्रायनी क्रिया लागे. अ० जथा जेम सूत्रमां कहुं तेम चालताने, इ० इरियावी. क्रिया लागे ने न० विपरीत चालताने सं० संप्रायनी क्रिया लागे. से० ते ० नृत्सूत्री उपरांगे चाले बे, से० ते अर्थे एम कयुं.
भावार्थ:- हवे जुर्छ ! जेना क्रोधादिक चार विछेद गया, तेने इरिया हि क्रिया कही, अने क्रोध, मान, माया ने लोन सहित बे, तेने संप्ररायनी २४ क्रिया कही. तेवारे तेरापंथी कड़े वे के, इहांतो क्रोधादिकथी संप्रायनी क्रिया कही बे, पण पुण्य बंधातुं कथं नथी. तेनो उत्तर. हे देवानुप्रय ! समवायांगसूत्रमां श्रश्रवना पांच जेद कह्या छे. तेमां मिथ्यात, वृत, प्रमाद छाने कषाय तो अशुभ कर्मनां बारणां बे; अने जोग श्राश्रवना पंदर नेद ने पचीस क्रिया बे. तेमां वीतराग-संजमीने रागरहितने तो शुभजोगथी शातावेदनी इरियावदी - क्रिया कही; शेष चोवीसने संप्राया- क्रिया कही. तेथी पुन्य न बंधाय, तो शुजाशुन कर्मना ग्रहवावाला श्राश्रवना तो पांचज नेद कह्या बे :- मिथ्यात, वृत, प्रमाद, कषायाने जोग, ते पचीस किया. तेमां पुन्य न बंधाय, तो पुन्य कर क्रिया ने कया श्राश्रवमां वैधाय ? ते कहो. हे देवानुप्रीय! चोवीस संप्रायने कषायनी क्रिया कही. तेमां प्रशस्त रागनी क्रिया अने शुभजोगथीज पुन्य बंधाय, श्रने अशुभजोगनी क्रिया द्वेष अने अप्रशस्तरागथी पाप बंधाय. ए न्याये प्रशस्त रागसहित राजजोग, तेज पून्य बंधावानुं कारण जाणवुं; पण संवर-नावमां देवतादिकनुं श्राजखं तथा पुन्यप्रक्रतिबंधाय नही. शाख सूत्र जगवती शतक पेहले नदेशे मे. ते पाठ.
संवुमेनंते ! अणगारे सिद्यइ बुइ मुच्चइ परिवाइ सबका मंतंकरेइ ? गो० ! पोइसम. सेकेणद्वेणं