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4 सिद्धान्तसार. +
अर्थः- जे० जे स० श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी ए० एक म० मोटी दा० मालानो दु० जोमो स० सर्व र० रत्नमय सु० स्वप्नने विषे पा० देखीने प० जाग्या. त० ते स० श्रमण जगवंत श्री महावीर देवे दु० वे प्रकारे ध० धर्म प० परूप्यो तं ते कड़े :- आ० ग्रहस्थनो सम्यक्त पूर्वक बारव्रतरुप धर्म ने ० साधुनो ध०पंच महाव्रतरुप धर्म. जावार्थ:- हवे जुर्छ ! था पाठमां तो कयुं वे के, जगवंत श्री महावीर स्वामीए एक मोटी मालानो (जुगल ) जोमो दीवो. तेना प्रजावे जगवंते वे प्रकारनो धर्म परुप्योः श्रावकनो ने साधुनो. इहां तो एक माला बे सेरनी देखी, एवो परमार्थ दीसे बे. बोटी मोटी तो कही नथी. हवे गेटी मोटी वे माला कहे बे तेने पुठीए के, रत्न सम कितने कहीए के व्रतने कहीए ? सूत्रमां केवी रीते बे ? ए देखतां तो तमे व्रतने रत्न कहता देखा बो; पण सूत्रमां तो सम कितने रत्न कयुं बे. प्रथम तो ज्ञाता सूत्रना पहेला श्रध्ययनमां मेघकुमारने श्री वीरजगवाने अप मिल समत्तरयण लंजेणं " कह्युं बे; पण क्रियारुप धर्मने तो रत्न कयुं नथी. हमणांना चार तीर्थ पण एम कहे बे के " मारा समकित - रुपी रत्नने विषे जे तिचार लाग्यो होय ते आलोटं " एम कहे बे; पण व्रत तो रत्न कता देखाता नथी. माटे समकित तेज रत्न बे, कारण के जेने प्राप्त थये शुक्लपक्षी ने पुद्गलमां निश्चे मोक्षगामी थवाय; पण क्रिया रत्न नथी. जो क्रिया रत्न होय तो अज्ञानीने मुक्ति केम नथी ? वली सूत्र जगवतीमां समकितने पढमा कही देखने क्रियाने तो पढमा कही बे. क्रिया तो जीवे अनंत वारकरी, पण गरज न सरी, ते माटे रत्न नथी. वली क्रिया तो स्त्रीरुप के अने ज्ञान तो नरथाररूप बे. वली अनुयोगद्वारमां क्रियाने श्रांधली कदी देने ज्ञानने पांगलो को बे. जेम रथ एक पइमाथी न चाले, पण बे परमाथी चाले; तेम ज्ञान थाने क्रियाने संयोगे फलनी सिद्धि कही. वली दस वैकालीक सूत्रना चोथा अध्ययनमां 'पढमंनाणं तदया' ए गाथाथी खइने चोथी गाथा सुधी समकित सहित क्रियाने संजम को ठे; अने
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