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+सिदान्तसार..
( २१९) जोडं सु० कणदोरा प्रमुख मन् महा यशवंत प्रा० श्रान स०सर्व मुकुट वर्जिने सा सारथिने प० दीधां. ॥ २०॥
जावार्थ:-हवे जु ! जीवनी अनुकंपा तथा जीवीतव्यने हेते श्री नेमनाथ जगवंत तोरणथी पाठा फर्या. हे देवानुप्रीय!असंजति जी. वने बचाव्यामां पाप कये न्याये कहोडो ? ए असंजति जीवोनुं जीवातव्यश्री नेमीनाथ जगवंते केम वान्ब्युं ? ते कहो. वली चीत्तमुनीराजे ब्रह्मदत्त चक्रवृतने कयुं के, तुं सर्व प्राणीनी तथा सर्व प्रजानी अपुकंपा कर. शाख सूत्र उत्तराध्ययन अध्ययन १३ में गाथा ३५ मी:जइ तेसिं नोगे चश्न असंतो अजाइ कम्माइं करेहिं रायं धम्मेसिव पयाणुकंपी तो, दोहिसि देव इन विनधी. ३२
अर्थः-जा जो ते० ते जो लोग च जमवा अ० (अशक्त) असमर्थ ले तो ए श्र० श्रार्य का काम करे कर. रा हे राजा ! धण प्रहस्थना धर्मने विषे वि० रेहेतां थकां स० सर्व पया० जीवनी अनुकंपा करवी, कराववी, ए आर्य कर्म कर. ग्रहस्थनो धर्म पालीश तो तोपण हो० था दे० देवता इ० ए मनुष्य नवथी वि० विक्रय शरीरवंत ॥ ३ ॥
नावार्थः-हवे जुन ! चित्तमुनीए ब्रह्मदत्तने कयु के "जो तमा जोग त्यागवानी बुद्धि नथी, तो तमे हे राजे ! श्रार्य कर्म तो करो." हवे नियाणा-कृतने त्याग तथा साधु श्रावकनां व्रत तो आवे नहि, त्यारे बार्य कर्म शुं करवू कडूं ते कहो. ए आर्य कर्म कहेतां जीवनी दया पलाय, धर्म तथा समकितने विषे स्थिर रहे अने सर्व प्राणीनी तथा प्रजानी अनुकंपा करे, तोपरा तमारे पुन्य बंधासे; तेथी विक्रय रिछिनो धणी देवता थश्श, एम कडं. श्रहो देवानुप्रीय ! तमे प्राणी जीवनी अनुकंपा कीधामां तथा जीवदया पलाव्यामां पाप कये न्याये कहोगे? बली उत्तराध्ययन अध्ययन १ मानी गाथा १३ मीमां कडं ते के