Book Title: Shrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Author(s): Shrimad Rajchandra, 
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 17
________________ विषय-सूची पृष्ठ ४६७ ४६७ ४६७-९ ४७० ४७. ४७० ४७० ४७१ ४७१ ४७२ ४७२ ४७२ पत्रांक पृष्ठ पत्रांक ५१३ ऋद्धि-सिद्धिविषयक प्रश्न ४५१ ५४३ धर्म, अधर्म आदिविषयक ५१४ समयका लक्षण ४५२ ५४४ आत्मार्थकी चर्चाका श्रवण ५१५ एक लौकिक वचन ४५२ : ५४५ सत्यसंबंधी उपदेशका सार ५१६ देह छूटनेमें हर्ष विषाद योग्य नहीं ४५२५४६ एवंभूत दृष्टिसे ऋजुसूत्र स्थिति कर ५१७ उदास भाव ४५३ . ५४७ मैं निजस्वरूप हूँ। ५१८ ज्ञानीके मार्गके आशयको उपदेश ५४८ " देखत भूली टळे" करनेवाले वाक्य ४५३-४ : ५४९ आत्मा असंग है ५१९ शानी पुरुष ४५५ ५५. आत्मप्राप्तिकी सुलभता ५२० शानका लक्षण ४५६ ५५१ त्याग वैराग्य आदिकी आवश्यकता ५२१ आमकी आर्द्रा नक्षत्र में विकृति ४५६५५२ सब कार्योंकी प्रथम भमिकाकी कठिनता ५२२ विचारदशा ४५६ / ५५३ "समज्या ते शमाई रखा" ५२३ अनंतानुबंधी कषाय. ४५७/५५४ जो सुखकी इच्छा न करता हो वह ५२४ केवलज्ञान नास्तिक, सिद्ध अथवा जद है ५२५ मुमुक्षुके विचार करने योग्य बात ४५७५५५ दुःखका आत्यंतिक अभाव ५२६ परस्सर दर्शनोंमें भेद ४५८ | ५५६ दुःखकी सकारणता *५२७ दर्शनोंकी तुलना ४५८ | ५५७ निर्वाणमार्ग अगम अगोचर है *५२८ सांख्य आदि दर्शनोंकी तुलना ४५९ | ५५८ ज्ञानी पुरुषोंका अनंत ऐश्वर्य ५२९ उदय प्रतिबंध | ५५९ पल अमूल्य है ५३. निवृत्तिकी इच्छा ४५९ | ५६० सतत जागृतिरूप उपदेश ५३१ सहज और उदीरण प्रवृत्ति ४६. २९ वाँ वर्ष ५३२ अनंतानुबंधीका दूसरा भेद ४६० | ५६१ "समजीने शमाई रमा, समजीने शमाई ५३३ मनःपर्यवज्ञान गया" ५३४ 'यह जीव निमित्तवासी है' ४६१ | ५६२ मुमुक्षु और सम्यग्दृष्टिकी तुलना ५३५ केवलदर्शनसंबंधी शंका ४६१ ५६३ सुंदरदासजीके ग्रंथ ५३६ केवलज्ञान आदिविषयक प्रश्न ४६२ / ५६४ यथार्थ समाधिके योग्य लक्ष ५३७ गुणके समुदायसे गुणी भिन्न है या नहीं ४१२ | ५६५ सर्वसंग-परित्याग इस कालमें केवलज्ञान हो सकता है या नहीं ४६२ | ५६६ लौकिक और शास्त्रीय अभिनिवेश जातिस्मरण शान ४६२-३ | ५६७ सब दुःखोका मूल संयोग प्रतिसमय जीव किस तरह मरता रहता है ४६३ | ५६८ " श्रद्धाशान लयां छे तो पण" केवलदर्शनमें भूत भविष्य पदार्थोंका शान | ५६९ शास्त्रीय अभिनिवेश किस तरह होता है ४६१ | *५७० उपाधि त्याग करनेका विचार ५३८ देखना आत्माका गुण है या नहीं? ४६४ *५७१ भू-ब्रह्म आत्माके समस्त शरीरमें व्यापक होनेपर *५७२ जिनोपदिष्ट आत्मध्यान भी अमुक भागसे ही क्यों शान होता है ? ४६४ | ५७३ " योग असंख जे जिन कहा" शरीरमै पीड़ा होते समय समस्त प्रदेशोका ५७४ सर्वसंगपरित्यागका उपदेश एक स्थानपर खिंच आना ४६५ | ५७५ परमार्थ और व्यवहारसंयम ५३९ पदोंका अर्थ | ५७६ आरंभ परिग्रहका त्याग ५४. युवावस्था विकार उत्पन्न होनेका कारण ४६६ | ५७७ त्याग करनेका लक्ष ५४१ निमित्तवासी जीवोंके संगका त्याग ४६६/५७८ संसारका त्याग ५४२ 'अनुभवप्रकाश ४६६ | ५७९ सत्संगका माहास्य ४७४ ४७५ ४७६ ४७० ४७८ ४७८ ४७९ ४७९ ४८.

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