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उपोद्घात
जा पहुंचे । जावड ने उन का बडे हर्षपूर्वक सत्कार किया । प्रसंगवश मुनिमहाराज ने शत्रुंजयतीर्थ का हाल सुनाया और म्लेच्छों ने उस को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है इस लिये पुनरुद्धार कर ने की आवश्यकता बताई । जावड ने अपने सिर इस कार्य को लिया । एक महिने की तपश्चर्या कर चक्रेश्वरी देवी का आराधन किया । देवी ने प्रसन्न हो कर कहा - ' तक्षशिला नगरी में, जगन्मल्ल नाम क राजा के पास जा कर, वहां के धर्मचक्र के अग्रभाग में रहा हुआ जो अर्हबिम्ब है, उसे ले जा कर शत्रुंजय पर स्थापन कर ।' देवी के कथनानुसार जावड तक्षशिला में गया और राजा की आज्ञा पा कर धर्मचक्र में रही हुई ऋषभदेव तीर्थंकर की प्रतिमा को तीन प्रदक्षिणा देकर उठाई । महोत्सव के साथ उस प्रतिमाको अपने जन्म - स्थान मधुमती में लाया । जावड ने बहुत वर्षों पहले, म्लेच्छदेश में से बहुत से जहाज, माल भर कर चीन वगैरह देशों को भेजे थे वे समुद्र में घूमते फिरते इसी समय मधुमती नगर के किनारे आ
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लगे । ये जहां माल बेच कर उस के बदले में सुन्ना भर कर लाये थे । जावड को इन की खबर सुन कर बहुत खुशी हुई । सब जहाज वहीं वर खाली कर लिये गये । जैनसंघ के आचार्य श्रीवज्रस्वामी भी इस समय मधुमती में पधारे । उन की अध्यक्षता में जावड नें वहां से बड़ा भारी संघ निकाला और उस भगवत्प्रतिमा को ले कर शत्रुंजय के पास पहुंचा । आचार्य श्रीवत्रस्वामी के साथ जावड सारे ही संघ समेत गिरिराज पर चढने लगा । असुरों ने रास्ते में कितने ही उपद्रव और विघ्न किये जिन का शान्तिकर्म द्वारा श्री स्वामी ने निवारण किया । ऊपर जा कर देखा तो सर्वत्र हड्डी वगैरह अपवित्र पदार्थ पडे हुए थे । मन्दिरों पर बेसुमार घास ऊगी हुई थी । शिखर आदि टूट फूट गये थे । तीर्थ की यह अधमावस्था
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