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उपोद्घात
बनाये और उन के द्वारा जैनधर्म के आचार्यों को देशनिकाल दिलावया । जैनों के जितने तीर्थ थे उन पर बौद्धाचार्यों ने अपना दखल जमाया और उन में अर्हतों की मूर्तियों की जगह बुद्धमूर्तियें स्थापित की । शत्रुंजय तीर्थ पर भी उन्हों ने वैसा ही बर्ताव किया। कुछ समय बाद चंद्रगच्छ में धनेश्वरसूरि नाम के एक तेजस्वी जैनाचार्य हुए। उन्हों ने बल्लभी के राजा शिलादित्य को प्रतिबोध किया और उसे जैन बनाया । राजा बौद्धों के अत्याचारों से रुष्ट हो कर उन्हें देशनिकाल किया । धनेश्वरसूरि ने यह शत्रुंजय - महात्मय बनाया * । इस का श्रवण कर शिलादित्य ने शत्रुंजय का पुनरुद्धार करवाया और ऋषभदेव भगवान की नई मूर्ति प्रतिष्ठित की । इस प्रकार ऐतिहासिकयुग के इन दो उद्धारों का वर्णन इस माहात्म्य में हैं ।
इस माहात्म्य के सिवा, इस तीर्थ के दो कल्प भी मिलते हैं जिन मैं का एक प्राकृत में है और दूसरा संस्कृत में । प्राकृत-कल्प के कर्ता तपागच्छ के आचार्य धर्मघोषसूरि हैं और संस्कृत के कर्ता खरतरगच्छ के जिनप्रभसूरि । शत्रुंजय - माहात्म्य में जिन बातों का विस्तृत वर्णन है, इन कल्पों में उन सब का संक्षिप्त सूचन मात्र है । इन कल्पों में यह भी लिखा है कि- इस तीर्थ - पर्वत पर अनेक प्रकार के रत्नों की खानें हैं, नाना तरह की चित्र विचित्र जडीबुट्टियें हैं, कई रसकुंपिकायें छीपी हुई हैं और गुप्त गुहाओं में, पूर्व काल के उद्धारकों की करवाई हुई रत्नमय तथा सुवर्णमय जिनप्रतिमायें, देवताओं द्वारा सदा पूजित रहती हैं ।
प्रभावक आचार्यों द्वारा शत्रुंजय का इस प्रकार, अलौकिक और आश्चर्यजनक माहात्म्य कहे जाने के कारण जैन प्रजा की इस तीर्थ पर
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* ऐतिहासिक विद्वान् इस के कर्तृत्व विषय में शंकाशील हैं । वे इसे आधुनिक बताते हैं । 'बृहद्दिप्पनिका ' के लेखक का भी यही मत है । हमने केवल माहात्म्य की दृष्टि से इस का उल्लेख किया है, इतिहास की दृष्टि से नहीं ।
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