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शत्रुजय पर्वत का आधुनिक वृत्तान्त ।
किये हैं । उन्हों ने कोई दो-ढाई लाख रुपये खर्च कर जैनसूत्रों को भी छपवाया था। ये सूत्र सब स्थानों में, सन्दूकों में भर भर कर भेज दिये गये थे। जितने बचे हैं वे इस मंदिर में एक स्थान में, रक्खे हुए हैं। जिन को जरूरत होती है उन्हें, यदि योग्य समझा तो, मुफ्त दिये जाते हैं।
पर्वत के चढाव का वर्णन जैनहितैषी के सुयोग्य सम्पादक दिगम्बर विद्वान् श्रीयुत नाथूरामजी प्रेमी ने अपने एक लेखमें, संक्षेप में परंतु बडी अच्छी रीतिसे, लिखा है जो यहां पर उद्धृत किया जाता है।
" इस टोंक को छोड कर कुछ ऊँचे चढने पर एक विश्रामस्थल मिलता है जिसे ' धोली परब का विसामा ' कहते हैं । यहां पानी की एक प्याऊ (प्रपा ) लगी है । इस तरह के विश्रामस्थलों, प्रपाओं, कुंडों तथा जलाशयों का प्रबन्ध थोडी थोडी दूर पर सारे ही पर्वत पर हो रहा है। इन से यात्रियों को बहुत आराम मिलता है । धूप और शक्तिसे अधिक परिश्रमसे व्याकुल हुए स्त्री-पुरुष इस प्रपाओं के शीतल जल को पी कर मानों खोई हुई शक्ति को फिरसे प्राप्त कर लेते हैं । इस प्याऊ के समीप ही एक छोटीसी देहरी है जिसमें भरतचक्रवर्ती के चरण स्थापित हैं। इन की स्थापना वि. सं. १६८५ में हुई है । इस तरह की देहरियां जगह जगह बनी हुई हैं जिन में कहीं चरण ओर कहीं प्रतिमायें स्थापित हैं।
आगे एक जगह कुमारपाल कुण्ड और कुमारपाल का विश्रामस्थल है । कहते हैं कि यह गुजरात के चालुक्यवंशीय राजा कुमारपाल का बनवाया हुआ है।
___ " जब पर्वत की चढाई लभभग आधी रह जाती है तब हिंगलाज देवी की देहरी मिलती है। यहां एक बूढा ब्राह्मण बैठा रहता है जो
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