Book Title: Shatrunjay Mahatirthoddhar Prabandh
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Atmanand Sabha

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Page 33
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २६ उपोद्घात है, यह नहीं ज्ञात होता । संसार के शिक्षितों का यह अब निश्चय हो गया है कि भारत की भूतकालीन विभुता का विशेष परिचय, केवल उस के प्राचीन घुस्स और पत्थर के टुकडे ही करा सकते हैं। ऐसी दशामें, उन की अवज्ञा देख कर किस वैज्ञानिक को दुःख नहीं होता * । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * कर्नल ais यहां की प्राचीनता के विलोप में एक और भी कारण बड़े दुःख के साथ लिखते हैं । वे कहते हैं - " ( इस पर्वत की ) प्राचीनता और पवित्रता के विषय में जो कुछ ख्याति है वह सब इसी ( बडी ) टोंक की है । परन्तु पारस्परिक द्वेष के कारण, आप आप को स्थापक प्रसिद्ध करने की तीव्र लालसा के कारण और एक प्रकार की धर्मान्धता के कारण लोगों ने यहां की प्राचीनता को बिलकुल नष्ट भ्रष्ट कर डाला है । मैं ने यहां के विद्वान् जैन साधुओं के मुंह से सुना है कि श्वेताम्बर - सम्प्रदाय के खरतरगच्छ और तपागच्छ नामक मुख्य दो पक्षों ने यहां के पुराने चिह्नों को नष्ट करने में वह कार्य किया है जो मुसलमानों से भी नहीं हुआ है ! जिस समय तपागच्छ वालों का जोर हुआ उस समय उन्हों ने खरतरगच्छ के शिलालेखों को नष्ट कर दिया और उन के स्थान में अपने नवीन शिलालेख जड दिये, इसी तरह X जब खरतरगच्छ का जोर हुआ तब उन्हों ने उन के लेखों को भी नष्ट भ्रष्ट कर डाला । पर्वत पर एक भी सम्पूर्ण मन्दिर ऐसा नहीं है सके । सब ही मन्दिर ऐसे हैं जो या तो नये किये हुए हैं या उन में फेरफार किया गया ( जैनहितैषी भाग ८, संख्या १० 1) X फल इस का यह हुआ कि इस जो अपनी प्राचीनता का दावा कर सिरेसे बनवाये गये हैं या मरम्मत है । "> , भारतहितैषी इस सज्जन पुरुष के कथन में बहुत कुछ अपने अन्यान्य अनुभवों से कह सकता हूं । पाटन वगैरह भाण्डागारों के अवलोकन करते समय ऐसी अनेक पुस्तकें मेरे के अन्त की लेखक - प्रशस्तियों में, एक दूसरे गच्छवालों ने, हरताल लगा लगा कर रद्दोबदल कर दिया है या उन का सर्वथा नाश ही कर डाला है । ऐसा ही निन्द्य कृत्य, संकुचित विचार वाले क्षुद्र मनुष्यों द्वारा, टाड साहब के कथनानुसार, शिलालेखों के विषय में भी किया गया हो तो उस में आश्चर्य नहीं । चाहे कुछ भी हो, परन्तु इतना तो सत्य है कि, शत्रुंजय के मन्दिरों की ओर देखते, उन की प्राचीनता सिद्ध करने वाले प्रामाणिक साधन हमारे लिये बहुत कम मिलते हैं । और यह ऐतिहासिक साधनाभाव थोडा खेद कारक नहीं है । For Private and Personal Use Only सत्यता है, ऐसा मैं स्थलों के पुस्तक दृष्टिगोचर हुई जिन

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