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शत्रुजयतीर्थोद्धारप्रबन्ध का
में ही था परन्तु पिता की इस इच्छा के पूर्ण करने का तभी से संकल्प कर गुरुमहाराज के शुभ वचनों की शकुनग्रंथी बांध ली ।
चित्रकोट की यात्रा वगैरह कर चुकने पर संघ ने आगे चलने का प्रयत्न किया । तोला साह ने धर्मरत्नसूरि को वहीं ठहरने के लिये अत्यंत आग्रह किया । सूरि ने कहा ' महाभाग ! विवेकी हो कर हमें अपनी यात्रा में क्यों अन्तराय डालना चाहते हों।' इस पर सेठ बड़ा उदासीन हुआ तब उस के चित्त को सन्तुष्ट करने के लिये अपने शिष्य विनयमण्डन नामक पाठक को वहीं पर रख दिये । सूरि संघ के साथ यात्रा के लिये प्रस्थित हो गये । विनयमण्डन पाठक के समीप में तोला साह आदि श्रावकवर्ग उपधान वगैरह तपश्चर्यादि धर्मकृत्य करने लगा। रत्ना साह आदि तोला साह के पांचों पुत्र भी पाठक के पास घडावश्यक, नवतत्त्व और भाप्यादि धर्मग्रन्थों का अभ्यास करने लगे। भाविकाल में महान् कार्य करने वाले कर्मा साह ऊपर, अपने गुरु के कथन से उपाध्यायजी सब से अधिक प्रेम रखने लगे । एक दिन का साह ने विनय पूर्वक विनयमण्डन जी से कहा कि ' महाराज! आप के गुरु के वचन को सत्य सिद्ध करने के लिये आप को मेरे सहायक बनने पड़ेंगे।' उपाध्याय जी ने हँस कर मीठे वचन से कहा कि ' महाभाग ! ऐसे सर्वोत्तमकार्य में कौन साहाय्य करना नहीं चाहता ? ' तदनन्तर कोई अच्छा अवसर देख कर उन्हों ने कर्मा साह को ' चिन्तामणिमहामन्त्र' आराधन करने के लिये विधि पूर्वक प्रदान किया। उपाध्याय जी, कई महिने तक चित्रकोट में रहे और ज्ञान, ध्यान, तप और क्रिया आदि मुनिवृत्तिद्वारा श्रावकों के चित्त को आनन्दित करते हुए यथायोग्य सब को उचित उचित धर्म कार्यों में लगाये । कर्मा साह को तीर्थोद्धार विषयक प्रयत्न में लगे रहने का वारंवार उपदेश कर उपाध्यायजी वहांसे फिर अन्यत्र विहार कर गये ।
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