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ऐतिहासिक सार-भाग।
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के दर्शन से मोर और चन्द्र के दर्शन से चकोर आनन्दित होता है वैसे साह भी आनन्दपूर्ण हो गया । वहीं से उसने सुवर्ण और रजत के पुप्पों में तथा श्रीफलादि फलों से सिद्धाचल को बधाया। याचकों को दान देकर सन्तुष्ट किया । गिरिवर को भावपूर्वक नमस्कार कर फिर इस प्रकार स्तुति करने लगा " हे शैलेन्द्र ! इच्छित देने वाले कल्पवृक्ष की समान बहुत काल से तेरे दर्शन किये हैं । तेरा दर्शन और स्पर्शन दोनों ही प्राणीयों के पाप का नाश करने वाले हैं । ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के सुखों के देने वाले तेरे दर्शन किये बाद स्वर्गादि कों में भी मेरा सकल्प नहीं है । स्वर्गादि सुखों की श्रेणि के दाता और दुःख तथा दुर्गति के लिये अर्गला समान हे गिरीन्द्र ! चिर काल तक जयवान् रहो ! तूं साक्षात् पुण्य का परम मन्दिर है। जिन के लिये हजारों मनुष्य असंख्य कष्ट सहन करते हैं वे चिन्तामणि आदि चीजें तेरा कभी आश्रय ही नहीं छोडती हैं । तेरे एक एक प्रदेश पर अनन्त आत्मा सिद्ध हुए हैं इस लिये जगत् में तेरे जैसा
और कोई पुण्यक्षेत्र नहीं है । तेरे ऊपर जिनप्रतिमा हों अथवा न होंतूं अकेला ही अपने दर्शन और स्पर्शन द्वारा लोंकों के पाप का नाशकरता है । सीमन्धर तीर्थंकर जैसे जो भारतीय जनों की प्रशंसा करते हैं उस में तुझे छोड कर और कोई कारण नहीं है।" इस प्रकार की स्तवना कर, अंजलि जोड कर पुनर् नमस्कार किया और फिर वहां से आगे चला । अपने सारे समुदाय के साथ शजय की जड में-आदिपुर पद्या ( तलहटी )में जाकर वास स्थान बनाया * |
*टिप्पणि में लिखा है कि-आदिपुरपद्या (तलहटी में जो कर्मासाह ने वासस्थान रक्खा उस का कारण सूत्रधारों ( कारीगरों) के ऊपर जाने अने में सुविधा रहे इंस लिये था । बाद में प्रतिष्ठा के समय जब बहुत लोक्त एकड़े हुए तब वहां से स्थान ऊठा कर पालीताणे में रक्खा था। क्यों कि वहां पानी वगैरह की तंगाईस पडने लगीथी।
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