Book Title: Shatrunjay Mahatirthoddhar Prabandh
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Atmanand Sabha

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Page 71
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४ शत्रुजयतीर्थोद्धारप्रबन्ध का संघजनों की उसने एक सी भक्ति की । किसी को, कीसी बात की न्यूनता न रह ने दी। प्रतिष्ठामहोत्सव में, सब अधिकारी अपने अपने अधिकारानुसार प्रतिष्ठाविधियें करने लगे । वैद्यों, वृद्धों और भीलों आदिकों को पूछ पूछ कर सब प्रकार की वनस्पतियें, अगणित द्रव्य व्यय कर, भिन्न भिन्न स्थानों में से ढूंढ ढूंढ मंगवाई । श्री विनयमण्डन पाठक की सर्वावसरसावधानता और सर्वकार्यकुशलता देख कर, प्रतिष्ठाविधि के कुलकार्यों का मुख्य अधिकार, सभी आचार्य और प्रमुख श्रावक एकत्र हो कर, उन्हें समर्पित किया । बाद में, गुरुमहाराज के वचन से अपने कुलगुरु आदिकों की यथेष्ट दान द्वारा सम्यग् उपासना कर और सब की अनुमति पाकर कर्मा साह अपने विधिकृत्य में प्रविष्ट हुआ । जब जब पाठकजी ने साह से द्रव्य व्यय करने को कहा तब तब सौ की जगह हजार देने वाले उस उदार पुरुष ने बडी उदारता पूर्वक धन वितीर्ण किया । कोई भी मनुष्य उस समय वहां पर ऐसा नहीं था जो कर्मा साह के प्रति नाराज या उदासीन हों । याचकलोकों को इच्छित से भी अधिक दान दे कर उन का दारिद्रय नष्ट किया । जो याचक अपने मन में जितना दान मांगना सोचता था, कर्मा साह के मुख की प्रसन्नता देख कर वह मुंह से उस से भी अधिक मांगता था और साह उसे मांगें हुए से भी अधिक प्रदान करता था; इस लिये उस का जो दान था वह 'वचोऽतिग' था । स्थान स्थान पर अनेक मण्डप बनाये गये थे जिन में बहु मूल्य गालीचे, चंद्रोए और मुक्ताफल के गुच्छक लगे हुए थे । लोकों को ऐसा आभास हो रहा था कि सारा ही जगत् महोत्सवमय हो रहा है । आनन्द और कौतुक के कारण मनुष्यों को दिन तो एक क्षण के जैसा मालूम देता था । जलयात्रा के दिन जो महोत्सव कर्मा साह ने किये थे उन्हें देख For Private and Personal Use Only

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