________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
परिशिष्ट ।
७९
अनुपूर्ति ।
शत्रुजय के इस महान् उद्धार के समय अनेक गच्छ के अनक आचार्य और विद्वान् एकत्र हुए थे । उन सबने मिल कर सोचा कि जिस तरह अन्यान्यस्थलों में मन्दिर और उपाश्रयों के मालिक भिन्न भिन्न गच्छवाले बने हुए हैं और उन में अन्य गच्छवालों को हस्तक्षेप नहीं करने देते हैं वैसे इस महान् तीर्थ पर भी भविष्य में कोई एक गच्छवाला अपना स्वातंत्र्य न बना रक्खें, इस लिए इस विषय का एक लेख कर लेना चाहिए । यह विचार कर सब गच्छवाले धर्माध्यक्षों ने एक ऐसा लेख बनाया था । इस की एक प्राचीन पत्र ऊपर प्रतिलिपि की हुई मिली है जिस का भावानुवाद निम्न प्रकार है। मूल की भाषा तत्समय की गुजराती है । यह पत्र भावनगर के श्रीमान् सेठ प्रेमचन्द रत्नजी के पुस्तकसंग्रह में है।
१ श्री तपागच्छनायक श्री श्री श्री हेमसोमसूरि लिखितं । यथा--शत्रुजयतीर्थ ऊपर का मूल गढ, और मूल का श्री आदिनाथ भगवान् का मन्दिर समस्त जैनों के लिये हैं । और बाकी सब देवकुलिकायें भिन्न भिन्न गच्छवालों की समझनी चाहिए । यह तीर्थ सब जैनों के लिए एक समान है । एक व्यक्ति इस पर अपना अधिकार जमा नहीं सकती । ऐसा होने पर भी यदि कोई अपनी मालिकी साबित करना चाहे तो उसे इस विषय का कोई प्रामाणिक लेख या ग्रंथाक्षर दिखाने चाहिए । वैसा करने पर हम उस की सत्यता स्वीकार करेंगे । लिखा पण्डित लक्ष्मीकल्लोल गणि ने ।
२- तपागच्छीय कुतकपुराशाखानायक श्री विमलहर्षसूरि
For Private and Personal Use Only